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________________ ४११ उपदेश-प्रासाद - भाग १ से तुम्हारी परीक्षा की । इस प्रकार से कहकर उसके आगे बहुत धन रखा । सार्थपति ने कहा कि- शुद्ध व्यवहार से अर्जन किया हुआ धन मेरे सुख के लिए है, इससे मुझे क्या प्रयोजन ? परंतु तुम ही मेरे धन को ग्रहण करो, क्योंकि मैंने यह स्वीकार किया था जो मेरे अश्व को जीवित करेगा, उसे मैं अपना धन दूँगा । इसलिए यह तेरा ही है। विद्याधर ने कहा कि- मैंने तो तुझे माया ही दिखायी थी। मैं दान के लिए कल्पित कीये हुए धन को कैसे ग्रहण करूँ ? हे सार्थपति ! हम दोनों की लक्ष्मी का स्थान कौन होगा ? उसने कहा कि- धर्म ही बड़ा स्थान है । इसलिए जीर्णोद्धार आदि से हम दोनों लक्ष्मी को कृतार्थ करें। पश्चात् दोनों ने भी वैसा किया । सार्थवाह साथ के साथ गृह में आया। क्रम से मुनिधर्म का स्वीकार कर आयुष्य के पूर्ण हो जाने पर मरकर तुम लक्ष्मीपुञ्ज हुए हो । मैं भी व्यंतरदेव हुआ हूँ। तुम्हारी महिमा से और तुम्हारे भाग्य से प्रेरित हुआ मैं गर्भ दिन से आज तक रत्नादि की वृष्टि कर रहा हूँ। इस प्रकार से वचन को सुनकर और जाति-स्मृति को प्राप्त कर लक्ष्मीपुञ्ज ने दीक्षा ग्रहण की । क्रम से अच्युत में जाकर और मनुष्यत्व को प्राप्त कर मोक्ष रूपी लक्ष्मी को प्राप्त की। जिस स्थैर्य भाव से एक नियम भी धारण किया हो, उसे श्रेष्ठ धन, स्वर्ण, सुख की ऋद्धि होती है । पर धन के परिहार से सार्थवाह देवों को अर्चनीय हुआ था । उसके समान ही भव्य-प्राणी इस व्रत में सुंदर प्रयत्न करें। इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में छटे स्तंभ में चौरासीवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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