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________________ ४१० उपदेश-प्रासाद - भाग १ मार्ग में घोड़े के खुर से उखाड़ी हुई भूमि में द्रव्य से पूर्ण ताम्र कुंड को देखकर उसे कंकर के समान मानकर आगे ही चलते हुए सहसा मूर्छा को प्राप्त घोड़े को देखकर उसने सोचा कि- यदि कोई इस घोड़े को सज्ज करे, तो मैं उसे निज सर्वधन दूंगा । इस प्रकार से सोचकर प्यास से पीड़ित हुआ जब वह जल के लिए आगे जाने लगा, तब उसने वृक्ष से बाँधे हुए और पानी से भरे जल कलश को देखा । पिंजरे. में रहे तोते ने उसे कहा कि- हे सौभाग्यशाली । तुम इसमें रहे जल को पीओ । मैं जल-पात्र के स्वामी को नहीं कहूँगा । इस प्रकार से सुनकर उसने कहा कि- प्यास से पीड़ित मैं प्राणों को छोड़ दूंगा । वें तो अनेक भव में प्राप्त हुए है और गये हैं। परंतु मैं अदत्त को ग्रहण नहीं करूँगा । क्योंकि हास्य से अथवा रोष से छल कर जो अदत्त को ग्रहण करता है, वह उसके फल को भोगता है । जैसे कि वासुदेव की पत्नी रुक्मिणी ने वन में मयूरी के अंडे को हाथ में लेकर उसे गुप्त रीति से छुपाया । सर्वत्र भ्रमण करती हुई उस मयूरी को देखकर सोलह घटिका के अंत में देवी ने उसे वापिस रखा । देवी के हाथ के कुंकुम से लाल हुए अंडे को देखकर मयूरी ने कितने काल तक उसका सेवन नही किया । उतने में मेघ के आगमन में लालपने के दूर हो जाने से उसने सेवना की । उस कर्म से सोलह वर्ष पर्यंत पुत्र का वियोग हुआ । इस प्रकार से हास्य से अदत्त ग्रहण में फल हैं । रोष से देवानन्दा और त्रिशला का दृष्टांत हैं । इसलिए हे तोते ! मैं स्वामीअदत्त को ग्रहण नहीं करता हूँ। उसकी व्रत की दृढता से संतुष्ट हुए तोते ने स्व का संवरण कर और दिव्य देहवाला होकर इस प्रकार से कहा कि __ मैं सूर्य नामक विद्याधर हूँ । तूंने गुरु के समीप में व्रत को ग्रहण किया था, उससे आश्चर्य से युक्त हुए मैंने निधि के दर्शन आदि
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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