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________________ ४०६ उपदेश-प्रासाद - भाग १ देव ने प्रकट होकर उसे इस प्रकार से कहा कि- हे मित्र ! तुम्हारे पूर्व भव को सुनो पहले तुम मणिपुर में गुणधर नामक सार्थवाह थें । एक बार तुमने धर्मदेव की यह वाणी सुनी कि द्रव्य का हरण प्राणी को मरण से भी दुःखदायी होता है, इसलिए सुकृतियों को चौर्य-विमोचन व्रत करना चाहिए । तथा लौकिक में भी कूट साक्षी, मित्र-द्रोही, कृतघ्न और चौरी-कारक-यें चारों कर्म-चांडाल हैं और पाँचवाँ जाति में जन्म लेनेवाला हैं । जैसे कि __ मनु चांडाली से पूछता है कि- हे मदिरा और मांस का भक्षण करनेवाली । तेरे हाथ में मनुष्य का कपाल है । तेरे दक्षिण हाथ में पानी क्यों हैं ? चांडाली कहती है कि कदाचित् मार्ग पर मित्र-द्रोही, कृतघ्न, चोर अथवा विश्वास- घातक चला हो, उससे यह छटा डाली जाती है । कदाचित् मार्ग पर कूट साक्षी देनेवाला, मृषावादी, पक्षपाती अथवा कलहकारी चला हो, उससे यह छटा डाली जाती है । अग्नि-शिखा का स्पर्श श्रेष्ठ है, सर्प के मुख को चूमना श्रेष्ठ है, हलाहल विष को चाटना श्रेष्ठ है लेकिन पर-धन का हरण श्रेष्ठ नहीं है। इस प्रकार से देशना को सुनकर उसने अदत्तादान की विरति की। एक दिन वह सार्थवाह बहुत सार्थ से युक्त अधिक धन लाभ के लिए देशांतर में गया । अश्व पर चढ़ा एक बार सार्थ से भ्रष्ट हुए और महारण्य में जाते हुए उसने सामने भूमि पर स्थित लक्ष मूल्यवाली स्वर्ण माला को देखकर तृतीय व्रत भंग के भय से ग्रहण नहीं की।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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