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उपदेश-प्रासाद - भाग १
इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश- प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में छठे स्तंभ में तीरासीवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
चौरासीवा व्याख्यान पुनः इस व्रत की स्तुति करते है कि
अदत्तादान नियम के ग्रहण में एक रत हुआ मनुष्य लक्ष्मीपुञ्ज के समान दोनों भवों में बड़े पद को प्राप्त करता है।
सामान्य से अदत्तादान दो प्रकार से हैं- सचित्त से और अचित्त से । सचित्त-द्विपद आदि है, अचित्त-आभरण आदि है । उन दोनों का नियम-विरति, यह अर्थ हैं ।
श्लोक में कहा हुआ यह वृत्तांत हैं -
हस्तिनागपुर में सुधर्म वणिक् था और उसकी गृहिणी धन्या थी। वें दोनों दारिद्र्य के दुःख से काल को व्यतीत कर रहें थें । एक दिन रात्रि में स्त्री ने स्वप्न में पद्म-द्रह में कमल में स्थित लक्ष्मीदेवी देखी । प्रातःकाल में उसने स्व पति से निवेदन किया । आनंदित हुए उसने कहा कि- हमारा यह दारिद्र्य चला जायेगा । तब कोई स्वर्ग से च्युत हुआ देव उस स्त्री की कुक्षि में अवतीर्ण हुआ। तब पूर्व के मित्र देवों ने उसके गृह में स्वर्णादि की वृष्टि की । नौ मास के पूर्ण हो जाने पर उसने पुत्र को जन्म दिया । तब स्व-जनों ने लक्ष्मीपुञ्ज इस प्रकार से उसका यथार्थ नाम किया । वह बालक शुक्ल पक्ष के चन्द्र की कान्ति के समान वृद्धि को प्राप्त करने लगा । स्वयंवर में उसने श्रेष्ठियों की आठ कन्याओं से विवाह किया । एक दिन वह स्व महल में उनके साथ सौख्य का अनुभव करते हुए स्थित था, तभी किसी