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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ ४०७ इस प्रकार से विचार कर और प्रतिहार का वेष कर तथा दंडों से मारकर देव ने योद्धाओं को मूर्छा को प्राप्त कराये । नगर-वासी और चतुरंग सेना से घेरा हुआ राजा वहाँ पर आया । तब देव ने कहा कि- तुम बहुतों से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि कृश भी सिंह गजेन्द्रों से समान नहीं है, सत्त्व ही प्रधान है न कि मांस-राशि ! वन में हाथिओं के अनेक वृन्द सिंह के नाद से मद का त्याग करतें हैं। इस प्रकार से कहकर राजा के बिना उन्हें भी भूमि पर गिराया। नगर के ऊपर आकाश में शिला की विकुर्वना कर उपद्रव करने लगा। राजा-मंत्री आदि अञ्जलि कर कहने लगें कि- हमारें अपराध को क्षमा करो । देव ने कहा- निरपराध हमारे धर्म-गुरु जिनदत्त को क्यों बाधा की है ? इसकी महिमा से मैंने इस देव-ऋद्धि को प्राप्त की है। इस प्रकार से कहकर उसने सर्व वृत्तांत कहा । राजा ने कहा प्रथम वय में पीये हुए अल्प पानी का स्मरण करते हुए सिर पर भार को स्थापित कीये नारियल आजीवितान्त मनुष्यों को अमृत तुल्य पानी देते हैं । साधु कीये हुए उपकार का विस्मरण नहीं करते उससे प्रसन्न हुए देव ने कहा कि- तुम सब मेरे गुरु के पैरों में नमस्कार कर प्रणाम करो । उसके मुख से नमस्कार मंत्र और चोरी आदि व्रत को ग्रहण करो । सभी ने वैसा किया । जिनदत्त बड़े महोत्सव पूर्वक स्व गृह में आया । लोग भी परस्पर प्रत्यक्ष से जैनधर्म की प्रशंसा करने लगे। लोह की शूलि के ऊपर चढ़ायें जाने पर भी जिनदत्त के संग से अहो ! जिस लोहखुर ने अल्पकाल के नियम को धारण करते हुए आद्य विमान में देव-ऋद्धि को अलंकृत की थी।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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