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उपदेश-प्रासाद - भाग १
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पचासीवा व्याख्यान अब स्व-दार संतोष लक्षणवाले व्रत को कहते है कि
स्व पत्नीयों में संतोष और दूसरी स्त्रियों का त्याग, यह गृहस्थों का चतुर्थ अणुव्रत प्रख्यात हैं।
गृहस्थ स्व परिणीत स्त्रियों में संतोष और स्थिरता को धारण करे और दूसरी स्त्रियों का- स्व से व्यतिरिक्त मनुष्य, देव और तिर्यंचों की परिणीत, असंगृहीत, अविधवादि जो स्त्रियाँ हैं, उनके त्याग कीविरति को धारण करें । यद्यपि कोई अपरिगृहीत देवीयाँ और तिर्यंची किसी संग्रह करनेवाले और विवाह करनेवाले के अभाव से वेश्या के समान ही होती है, तथापि पर जातीय को भोग्यत्व के कारण से परदारा ही है, इसलिए उनका वर्जन करना चाहिए । स्व-दार संतोषी को अन्य सभी पर-दारा ही हैं । दार शब्द के उपलक्षण से स्त्री प्रति स्वपति से व्यतिरिक्त सर्व पुरुषों के वर्जन को भी जानें, यह भावार्थ हैं। इस प्रकार से जिनेश्वर गृहस्थों के उस चतुर्थ अणुव्रत-मैथुन विरमण को कहते हैं, यह अर्थ है।
__ वह मैथुन दो प्रकार से है- सूक्ष्म और स्थूल । काम के उदय से इन्द्रियों का जो अल्प विकार है, वह सूक्ष्म है । मन-वचन और काया से औदारिक स्त्रियों का जो संभोग है, वह स्थूल हैं। तथा मैथुन का त्याग रूप ब्रह्मचर्य दो प्रकार से है- सर्व से और देश से । वहाँ सर्व से अशक्त उपासक देश से स्वीकार करे, यह भाव है । इस व्रत के विषय में यह प्रबंध है
__ अहो ! नागिल के समान विपदाओं को नष्ट करनेवाला और मुक्ति को संमुख करनेवाला कारण ऐसा ब्रह्म व्रत गाया जाता है ।
भोजपुर नगर में श्रीसर्वज्ञ धर्म में रक्त लक्ष्मण नामक व्यापारी था । नवतत्त्व को जाननेवाली उसकी नन्दा नामक पुत्री थी।