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उपदेश-प्रासाद - भाग १ अग्नि, राजा आदि के द्वारा अपहरण किया गया । क्रम से पुत्र को यौवन में ग्रामान्तर वासी सुश्रावक श्रेष्ठी की पुत्री से विवाहित किया । वधूघर में आयी । वह श्राविका धर्मको जानती थी । श्रेष्ठी की दूकान घर के समीप में ही थी । श्रेष्ठी ग्रहण, देने आदि के अवसर पर पूर्व में संकेतित पंच पोष्कर, तीन पोष्कर के मान के संबंध से पुत्र को भी पंच पोष्कर, तीन पोष्कर रूप दूसरे नाम से बुलाता था । क्रम से इस वृत्तांत को जानकर लोगों ने श्रेष्ठी का वञ्चकश्रेष्ठी इस प्रकार से नामान्तर दिया । ____ एक बार वधू ने भर्ती से पूछा कि- किस कारण से पिताजी आपको दूसरे नाम से बुलातें है ? उसने सर्व भी व्यवसाय का व्यतिकर कहा । धर्मार्थी वधू ने श्रेष्ठी से विज्ञप्ति की कि- इस प्रकार पाप व्यवहार आदि से अर्जन किया हुआ धन न धर्म कार्य में और न ही भोग के लिए और न ही गृह में रहता है। उससे न्याय से धनार्जन श्रेयकारी है । श्रेष्ठी ने कहा कि- न्याय से व्यवहार करनेवाले का निर्वाह कैसे होगा ? कोई-भी जन विश्वास नहीं करेगा । वधू ने कहा कि- जैसे कि- सुक्षेत्र में बोये हुए स्वल्प बीज से बहु फल के समान, स्वल्प भी व्यवहार शुद्ध धन से बहुत मिलता है और वह अधिक रहता है तथा निःशंकता से भोगादि की प्राप्ति होती है, जैसे कि
तपाये हुए पात्र के ऊपर जैसे पानी का बिन्दु नहीं दिखायी देता, वैसे ही कूट मान, तुला आदि से जो कुछ भी धन अर्जन किया जाता है, वह दिखायी नहीं देता, नष्ट ही होता है।
अन्याय से उपार्जित किया गया धन अशुद्ध होता है । अशुद्ध द्रव्य से आहार भी अशुद्ध होता है, अशुद्ध आहार से शरीर भी अशुद्ध होता है । अशुद्ध देह से जो-जो शुभ कृत्य कभी किया जाता है, ऊषर भूमि में स्थापित कीये हुए बीज के समान ही वह-वह सफल नहीं