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________________ ४०० उपदेश-प्रासाद - भाग १ अथवा कूट तुला और मान के करण में चोरत्व प्रकट ही है। जो कि कहते है कि थोड़ी-सी लालसा से, थोड़ी-सी कला से, थोड़ा-सा माप से और थोड़ा-सा तराजू से । थोड़ा-थोड़ा-सा लेते हुए व्यापारी प्रत्यक्ष चोर हैं। श्रावक को ऐसा योग्य नहीं है और इस व्रत का पालन व्यवहार की शुद्धि से ही होता है, जैसे कि जिन शुद्ध चित्तवालों को पर धन के ग्रहण में नियम है, स्वयं ही स्वयंवरा हुई लक्ष्मी उनके समीप में आती हैं। गृहस्थों को अन्याय से उपार्जित धन वर्ष आदि के प्रान्त में राजा, चोर, अग्नि, जल आदि से भी हरण कीये जाने के कारण से चिर स्थायी नहीं है और न ही उपभोग, पुण्य-चयादि का हेतु होता है। कहा भी है कि ___ अन्याय से उपार्जित धन दस वर्ष तक रहता है । ग्यारहवें वर्ष के प्राप्त हो जाने पर मूल सहित लगभग विनाश होता हैं। वंचकश्रेष्ठी के समान और वह इस प्रकार से है किसी सन्निवेश में हेलाक श्रेष्ठी था, उसकी पत्नी हली थी। उन दोनों का पुत्र भालक था । श्रेष्ठी मधुर आलाप, कूट तुला, मान, नये-पुराने के मिश्रण, रस-भेद, चोर के द्वारा लायी वस्तु को ग्रहण करना इत्यादि पाप व्यवहार के प्रकारों से मुग्ध ग्रामीण लोगों को ठगने की वृत्ति से धनार्जन करता था । परमार्थ से वह दूसरों को ठगने से स्व-आत्मा को ही ठग रहा था, क्योंकि माया से बक की वृत्ति के समान कौटिल्य में पटु पापी भुवन को ठगते हुए खुद को ही ठग रहे हैं। अन्याय से आने से वर्ष के प्रान्त में मिला हुआ भी द्रव्य चोर,
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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