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उपदेश-प्रासाद - भाग १ से इसे ग्रहण करता हुआ चोर कहा जाता है । इस प्रकार से चोरी के करने से व्रत-भंग है, मैं व्यापार ही कर रहा हूँन कि चोरी, इस प्रकार के अध्यवसाय से व्रत के निरपेक्षत्व के अभाव से अभंग है, ऐसे उभय रूप से यह द्वितीय अतिचार है।
वैरुध्य राज्य में, यह शेष है । वैरि-शत्रु के राज्य में, राजा के द्वारा अनुमति नहीं दीये हुए राज्य में वाणिज्य के लिए, गामुकगमनशील । उपलक्षणत्व से राजा द्वारा निषेध कीये हुए दाँत, लोह, पत्थर आदि का ग्रहण है । यद्यपि स्व स्वामी के द्वारा अनुमति नहीं दीये हुए को "स्वामी-जीवादत्त तीर्थंकर तथा ही गुरुओं के द्वारा, इस प्रकार इससे उसके करनेवाले को चोरी दंड के योग से अदत्तादान रूप में होने से व्रत का भंग ही है, तो भी विरुद्ध गमन करनेवाले मेरे द्वारा व्यापार ही किया गया है, न कि चोरी, इस प्रकार की बुद्धि से लोक में यह चोर है, इस प्रकार की प्रसिद्धि के अभाव से अतिचारता ही है, इस प्रकार से यह तृतीय अतिचार है।
तथा प्रतिरूप-सदृश, चावलों में पलंजि धान्य विशेष का मिश्रण, और घी में वसा, तैल आदि का मिश्रण इत्यादि से क्रिया व्यापार करना वह चतुर्थ अतिचार है।
___ तथा इससे मापा जाता है, वह मान है और वह सेतिका, हाथ आदि है, उस मान का अन्यत्व जैसे कि- हीन मान से देना और अधिक से ग्रहण करना, यह पाँचवाँ अतिचार है । प्रतिरूप क्रिया और मान का अन्यत्व दूसरों को ठगने के द्वारा पर द्रव्य को ग्रहण करने से भंग ही है, केवल कुदाली से खोदना आदि चोरी ही प्रसिद्ध है, मैंने तो वणिग् कुल प्रयोग जीवन-वृत्ति ही की है, इस प्रकार की बुद्धि से सापेक्षत्व के होने से अतिचार है । चोरी में संश्रित हुए ये त्याज्य हैं, यह तात्पर्य हैं।