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उपदेश-प्रासाद - भाग १ होता।
___यदि विश्वास न हो तो छह मास पर्यंत कूट वृत्ति के परिहार के द्वारा न्याय वृत्ति से व्यवसाय करे । वधू के वचन से श्रेष्ठी ने वैसा किया । छह मास में पाँच सेर मित स्वर्ण का अर्जन किया । सत्य व्यवहार से सभी लोग उसी की दूकान में ग्रहण करते थे और देते थे। लोक में कीर्ति और सभी को विश्वास उत्पन्न हुआ । स्वर्ण लाकर उसने वधू को समर्पित किया । वधू ने कहा कि- परीक्षा की जाय । उससे पंचसेरी बनवायी और उसे चर्म से वेष्टित तथा स्व नाम से अंकित करवाकर तीन दिनों तक राज-मार्ग पर छोड़ा । किसी ने भी उसे नहीं देखा । उसे लेकर किसी महाजलाशय में डाला । मत्स्य ने उसे निगला । वह मत्स्य भी किसी मच्छीमार के जाल में गिरा । उसके विदारण के पश्चात् पंचसेरी बाहर निकली । नाम से पहचान कर मच्छीमार उसे श्रेष्ठी के दूकान में ले आया। उसे थोड़ा धन देकर उस पंचसेरी को लिया । वधू के वचन पर विश्वास हुआ। शुद्ध व्यवहार परत्व से बहुत धन का उपार्जन करते हुए और सात क्षेत्रों में अनेक प्रकार से व्यय करते हुए उसने प्रौढ़ श्रेष्ठता प्राप्त की । तत्पश्चात् सभी लोग इसका द्रव्य सफेद है इस प्रकार से कर व्यवसाय आदि के लिए ग्रहण करते थे । जहाज को भरने में भी उसी का द्रव्य निर्विघ्न वृत्ति के लिए डाला जाता है । काल से उसके नाम से भी सर्वत्र ऋद्धि है, इस प्रकार से कर आज भी जहाज चलाने के अवसर में लोग 'हेलासा' इस प्रकार से कहते हैं । इस प्रकार से शुद्ध व्यवहार में वञ्चकश्रेष्ठी का दृष्टांत हैं।
___ इस प्रकार यहाँ भी शुद्ध व्यवहार प्रतिष्ठा का हेतु है । उससे परमार्थ से न्याय ही धन के उपार्जन के उपायों का उपनिषद् है ।
नाव के समूह क्षेम से जाये इसलिए नाविक ऊँच भाषाओं से