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________________ ३६७ उपदेश-प्रासाद - भाग १ को नहीं जानता हूँ । इसलिए हे राजन् ! आप बीस करोड़ स्वर्ण, आठ करोड़ चाँदी और हजार तुला मित रत्नों को ग्रहण करो । उस द्रव्य की तृण के समान ही अवगणना कर राजा ने कहा कि- हे माता ! तुम्हारा पुत्र शीघ्र ही आयगा । तुम यथेच्छा से इस सर्व द्रव्य को धर्म में वितरण करो । इस प्रकार से आश्वासित कर जब वह निकलने लगा, उतने में ही वह कुबेर पत्नी सहित विमान में बैठा हुआ वहाँ पर आया । बड़ा आश्चर्य हुआ । माता और राजा को प्रणाम कर स्थित हुए उससे राजा ने पूछा कि- हे साहस रूपी धनवाले ! उस शून्य नगर में क्या हुआ था ? कुबेर ने कहा कि हे स्वामी ! उस नगर में मैंने एक महल में एक कन्या देखी । उस कन्या ने कहा कि- मैं पातालकेतु विद्याधर की पुत्री हूँ। मुझे कन्या जानों । वह मेरा पिता मांस की लोलुपता से कितने ही काल से बिल्ली का भक्षण कर रहा था। उससे वह मांस भक्षण का व्यसन -वाला राक्षस हुआ है । उसने सभी नागरिकों का भक्षण किया है । अब वह आहार के लिए कहीं पर गया हुआ है । इसी अवसर पर उसके माता और पिता ने आकर मुझे कन्या दी । मैंने भी हाथ-मोचन में उससे मांसादि का नियम माँगा और उसे प्रतिबोधित किया । व्रत का स्वीकार कर उस विद्याधर ने मुझे विमान में चढ़ाकर पत्नी सहित यहाँ लाकर छोड़ा है । वह स्व-स्थान पर चला गया है । यह सुनकर विस्मित हुए श्रीचौलुक्य ने कहा कि- तुम धन्य हो, जिसने संकट में भी स्व-नियम को नही छोड़ा है । इस प्रकार से प्रशंसा कर राजा गुरु वंदन करने के लिए गया । तब गुरु ने कहा कि अपुत्रों का धन ग्रहण करता हुआ राजा पुत्र होता है और संतोष से छोड़ते हुए तुम सत्य ही राज-पितामह हो । राजर्षि, धर्मार्हत, नीति-राघव, चौलुक्य सिंहादि नाम को
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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