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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ ३६३ इक्यासीवा व्याख्यान पुनः इस व्रत की स्तुति करते है कि आहृत, स्थापित, नष्ट, विस्मृत, पतित और स्थित धन को जो अपना न हो उसे ग्रहण न करें, इस प्रकार से यह अस्तेय अणुव्रत हैं। आहृत-किसी के द्वारा अपहरण कर दीये हुए को । स्थापितकिसी के द्वारा स्व पास में अथवा भूमि में रखे हुए को । नष्ट-स्वामी के द्वारा जो नहीं जाना जाय ऐसे कहीं पर गये हुए धन को । विस्मृतकहीं पर रखे हुए को जो स्वामी के द्वारा स्मरण न किया जा सके । पतित-जाते हुए वाहनादि से नीचे गिरे हुए को । स्थित- जो स्वामी के पास में रहा हुआ हो । किसी भी द्रव्य-क्षेत्र और आपदा में चतुर जन ऐसे पर धन को ग्रहण न करे । .. यहाँ प्राणांत में भी कुलीन पुरुष दो कार्यों को नहीं करता हैपर द्रव्यों का अपहरण और पर-स्त्रियों का आलिंगन । आगे स्थित स्वर्णादि अन्य धन पर पत्थर सदृश जिनकी मति सदा रहती है, संतोष रूपी अमृत के रस से तृप्त हुए वें गृहस्थ भी स्वर्ग को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार से तृतीय अस्तेय अणुव्रत को जाने, यह अर्थ है। इस विषय में परमार्हत राजा का यह प्रबंध है पाटण में श्रीहेमसूरि राजा के आगे अदत्तादान व्रत की स्तुति करते है कि. पर धन को चुराते हुए इस लोक को, पर-लोक को, धर्मको, धैर्य, धृति और मति को- इन सभी को चुराया है। इस प्रकार से कहने पर राजा ने कहा कि
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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