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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ ३६२ ऐसे दंभ से भी जो ठगा नहीं गया है, वह मोचनीय ही है, इस प्रकार से नीति-पर मंत्रियों ने उसे राजा की आज्ञा से छोड़ दिया। ___ पिता की आज्ञा को धिक्कार है, हा ! जिससे इतने काल तक मैं ठगा गया हूँ । इच्छा के बिना भी एक बार वीर वाक्य के श्रवण से इस भव में प्रत्यक्ष गुण हुआ और पर भव में भी इससे ही होगा । अब भगवान् के द्वारा कहे हुए धर्म को अच्छी प्रकार से सुनकर स्व जन्म को सफल करूँगा, जैसे कि जिन-वचन रूपी चक्षु से विरहित लोग न देव को, न अदेव को, न कलंक रहित गुरु को, न कुगुरु को, न धर्म को, न अधर्म को, न गुण से युक्त को, न गुण-हीन को, न कृत्य को, न अकृत्य को, न हित को, न अहित को और न ही निपुण को देखते हैं। इस प्रकार से सोचकर और श्रीवीर के समीप में जाकर इस प्रकार से देशना सुनी कि मनुष्य चोरी से यहाँ विविध यातनाओं को और पर-लोक में नरक में गति, दौर्भाग्य और दरिद्रत्व को प्राप्त करता है। इस प्रकार से जिन-वाणी को सुनकर और द्वादश व्रतों को ग्रहण कर श्रेणिक के आगे स्व वंश, नाम, कर्मादि का निवेदन कर पर्वत की गुफाओं में रखा हुआ धन नगर-वासीयों को देकर और स्वयं प्रव्रज्या ग्रहण कर स्वर्ग में गया। यहाँ पर दंभ से जिस देव-ऋद्धि को देखकर, उसे सत्य से देखने की इच्छा से उत्सुक हुए उस रौहिणेय ने श्रीवीर के वचनों से चोरी का संयम कर दिव्य और दंभ रहित देव संपत्ति को धारण की थी। इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में छठे स्तंभ में अस्सीवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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