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उपदेश-प्रासाद
भाग १
३६१
हे देव ! शालिपुर का वासी मैं दुर्गचन्द्र नामक कौटुंबिक कार्य से आया हूँ । नगरी का रोध हो जाने से भयभीत हुआ कीले को लाँघकर जाते हुए मुझे आरक्षकों ने पकड़ लिया । मैं चोर नहीं हूँ । इस प्रकार से कहते हुए उसे कारागृह में डाला ।
शालिग्राम में राजा ने उसके अवदात की शुद्धि के लिए चर पुरुष को भेजा । उसका कहा सत्य जानकर उसके मुख से दंभ विजृंभत को जानने के लिए अभय ने स्व-महल में दोगुंदुक देव के सुख तुल्य और अप्सराओं के समान स्त्रियों से घेरे हुए पलंग के ऊपर मद्य पिलाकर और चीनाइ वस्त्रों को पहनाकर उसे सुलाया । क्रम से मद्य के उतर जाने पर उस दिव्य ऋद्धि को देखकर वह विस्मित हुआ । अभय के द्वारा आदेश दीये हुए पुरुषों ने जय जय नंदा इस प्रकार से मंगलों को कहते हुए उससे कहा कि - हे देव ! तुम इस विमान में देव हुए हो, हम तुम्हारें दास है, यें अप्सराएँ तेरी पत्नियाँ हैं, इनके साथ तुम क्रीड़ा करो, पुण्य से यह अवसर उपस्थित हुआ है । इस प्रकार से कहकर जब वें संगीत को करने लगे, तब एक स्वर्ण दंडवाले द्वारपाल ने आकर कहा कि - हे देव ! प्रथम स्वर्ग की स्थिति को ज्ञात कर सर्व देखें । जो यहाँ पर देव उत्पन्न होता है, वह पहले पूर्व के सुकृत-असुकृत को कहता है । इस प्रकार से कहने पर चोर ने सोचा कि- मैं लोहखुर का पुत्र रौहिणेय ही हूँ और मैं मरा नहीं हूँ । उसने(अभय ने) इस कपट जाल की रचना की है। पूर्व में सुनी हुई गाथा के अर्थ के स्मरण से पृथ्वी पर मिले हुए चरणवालें, पसीने से मलिन हाथवालें, मुर्झाई हुई मालाओंवाले और पलकारों से युक्त नयन - मालावालें उन्हें देखकर रौहिणेय ने कहा कि- मैंने पूर्व जन्म में सात क्षेत्रों में धन को बोया था, कदापि चोरी आदि नहीं की, दानादि धर्म से इसे प्राप्त किया है, इत्यादि सुनकर मंत्रियों ने कहा कि
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