________________
३९०
उपदेश-प्रासाद - भाग १ प्रकारों से आद्य स्वामी-अदत्त दो प्रकार से माना गया है। वहाँ श्रावक को सूक्ष्म में यतना है, स्थूल से तो निवृत्ति ही है, यह तात्पर्य है।
अब इस व्रत के फल को कहते है कि
चोरी वध से भी अधिक है, वध से तो एक बार मरण को प्राप्त करता है ।धन के अपहरण कीये जाने पर पुनः प्रौढ क्षुधा से ही सकल कुल मरण को प्राप्त करता है । चोरी को छोड़कर रौहिणेय ने देव संपत्ति को प्राप्त की थी, उससे विवेकी प्राणांत में भी पर धन का हरण न करे।
श्लोक में कहा हुआ यह दृष्टांत है
वैभारपर्वत की गुफा में रहते हुए प्रांत काल में लोहखुर पिता के द्वारा वीर वचन के श्रवण में निषेध कराये रौहिणेय चोर राजगृह को स्वेच्छा से लूँटने लगा । एक बार चोरी कर स्व नगर में आते हुए बीच में जिन समवसरण को जानकर इस प्रकार से सोचने लगा किमैं दोनों कानों को ढंकता हूँ जिससे वीर वाक्य का श्रवण और पिता की आज्ञा का भंग न हो । वैसा कर जाते हुए उसके पैर में काँटा लगा। उससे जाने में असमर्थ हुआ वह जब एक हाथ से पैर में से काँटें को निकालने लगा, तब उसके कान में भगवान् की वाणी गिरी
जिनेश्वर कहते है कि देव पलकारों से रहित नेत्रोंवालें, मन के इच्छित कार्य को साधनेवालें, अम्लान पुष्प की मालाओंवालें होते हैं और चार अंगुल से भूमि को स्पर्श नहीं करते हैं।
हा ! मैंने इसे सुन लिया है, मुझे धिक्कार हो, इत्यादि चिन्तन करते हुए और आगे जाते हुए रौहिणेय को चारों ओर भ्रमण करनेवालें राज-पुरुष कैसे-भी पकड़ कर राजा के आगे ले गये । राजा के द्वारा वध का आदेश दीये जाने पर अभय ने कहा कि- हे स्वामी ! इसे न मारें । तुम कौन हो? इस प्रकार से राजा के पूछने पर उसने कहा कि