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________________ ३६४ उपदेश-प्रासाद - भाग १ जो-जो निष्पुत्र मरण को प्राप्त करता है, हा ! कष्टकारी है, हताशा से और धन-आशा से राजा उसके-उसके पुत्रपने को स्वीकार करते हैं। उससे आज से लेकर मैंने अदत्त धन को और मृत को छोड़ ही दिया है । मुझे तृतीय-व्रत का अंगीकार हो । इस प्रकार से स्वीकार कर और राज-सभा में पंच जनों को बुलाकर उनसे पूछा । तब उन्होंने कहा कि- प्रति वर्ष बहोत्तर लाख द्रव्यों का आय होता है । यह जानकर राजा ने मृत द्रव्य को छोड़ दिया और पट्टक पत्र को फाड़ डाला । इस प्रकार उसने अठारह देशों में चौर्य वृत्ति और मृत धन के परिहार में पटह बजवाया । एक बार सभा में चार प्रधान महा-जन आकर और राजा को नमस्कार कर बैठे । उनको विलक्ष देखकर राजा ने कहा कि- आज सभा में आने में कौन-सा हेतु हुआ है ? यह वैलक्ष्य क्यों है ? क्या कोई पराभव हुआ है ? तत्पश्चात् उन महाजनों ने कहा कि हे राजेन्द्र ! हे जन-वत्सल ! आपके द्वारा पृथ्वी के शासन कीये जाने पर प्रजाओं का पराभव अथवा असमाधि कहाँ से हो ? परंतु गुर्जरपुर व्यापारियों में प्रधान यहाँका कुबेर श्रेष्ठी समुद्र में आता हुआ मरण को प्राप्त हुआ । निःपुत्र उसका परिवार आक्रन्दन कर रहा है । यदि राजा उसके गृह के द्रव्य को आत्मसात् करेगा, तब उसका अन्त्येष्टि संस्कार किया जायगा । उसका धन नहीं गिना जा सकता है । तब राजा ने कहा कि-हे महा-जनों ! मैंने मृत धन ग्रहण का प्रत्याख्यान किया है, किन्तु हम उसके गृह-सार को देखें । इस प्रकार से कहकर प्रधान आदि से घेरा हुआ राजा उसके घर आया । तत्पश्चात् स्वर्णकलशों की श्रेणि, झंकार करती हुई चूँघरुओं के शब्द से वाचालित हुई दिशा मंडल, कोटिध्वज की श्रेणि, हस्तिशाला और
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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