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________________ ३८७ उपदेश-प्रासाद - भाग १ धर के वस्त्रों को पहनकर जब आगे चला, तब कोई मृगशीघ्र से राजा के देखते ही लता के निकुञ्ज में प्रविष्ट हुआ। तभी एक भिल्ल धनुष पर बाण का संधान कर हिरण के पीछे दौड़ते हुए राजा से इस प्रकार से कहा कि- तुम मुझे कहो कि हिरण कहाँ गया है ? सुनकर राजा ने मन में सोचा कि अहो ! पंडितों के द्वारा जो प्राणियों को हितकारी न हो उस सत्य को भी नहीं कहना चाहिए, अब बुद्धि के प्रपञ्च से पूछनेवाले को बोधित करना चाहिए। इस प्रकार से विचार कर राजा ने कहा कि- मार्ग से भ्रष्ट हुआ मैं यहाँ आया हूँ। फिर से उसने हिरण की शुद्धि पूछी । तब भी राजा ने कहा कि- मैं हंस हूँ। इस प्रकार से राजा के वाक्य को सुनकर उसने क्रोध से कहा कि- हे विकल ! तुम अन्य उत्तर क्यों दे रहे हो ? पुनः राजा ने कहा कि- जहाँ तुम मुझे मार्ग दिखाओगे, मैं वहाँ जाऊँगा । उससे यह बधिर है इस प्रकार से जानकर वह भिल्ल निराश होकर चला गया । राजा आगे संचारण करते हुए एक साधुको देखकर और नमस्कार कर आगे चला । उतने में दो भिल्ल हाथ में शस्त्र लेकर राजा से कहने लगे कि- हमारा स्वामी चोरी के लिए निकलते हुए बीच में मुनि को देखकर और अपशकुन जानकर वापिस लौटा है। उसने हम दोनों को उस मुनि को मारने के लिए भेजा है । कहो, वह कहीं पर देखा गया है ? अब असत्य भी सत्य के रूप में होगा, इस प्रकार से विचार कर उस राजा ने कहा कि- वह यति वाम मार्ग से जा रहा है, परंतु कहीं पर भी वायु के समान अप्रतिबंधत्व के कारण से तुम दोनों को नहीं मिलेंगें । वें दोनों इधर-उधर देखकर चले गये । राजा शुष्क पत्रादि का भोजन कर रात्रि में जब सोने के लिए स्थित हुआ, तब बहुतों के इस प्रकार के आलाप को सुना कि- तृतीय
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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