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________________ ३८६ उपदेश-प्रासाद - भाग १ राजपुरी में हंस राजा उपवन की शोभा को देखने के लिए गया । वन में वहाँ एक मुनिको देखा। उनके सामने बैठे हुए राजा ने यह सुना कि सत्य यश का मूल है, सत्य श्रेष्ठ विश्वास का कारण है । सत्य स्वर्गका द्वार है और सत्य सिद्धि की सोपान है । दुर्गंधी, पूति मुखवाला, अनिष्ट वचनवाला, कठोर वचनवाला, जड़, बधिर और गूंगा तथा मन्मन से बोलना-झूठ बोलने में ये दोष उत्पन्न होते है। इस प्रकार से धर्म को सुनकर उसने सत्य के नियम को ग्रहण किया। एक बार राजा स्वल्प परिवार से घेरा हुआ रत्नश्रृंग पर्वत पर चैत्री यात्रा के उत्सव में श्रीऋषभस्वामी को नमस्कार करने के लिए चला। जब वह अर्धमार्ग तक गया, तब एक चर ने शीघ्र से आकर राजा से इस प्रकार विज्ञप्ति की- हे देव ! आपके यात्रा के लिए चले जाने पर सीमा के राजा ने बल से आपके नगर को ग्रहण किया है । उससे जो योग्य है उसे आप करो । समीप में रहे सुभटों ने राजा से विज्ञप्ति की- हे स्वामी! वापिस लौटें ! राजा ने उनको इस प्रकार से कहा पूर्व कर्म के वश से संपदाएँ, विपदाएँ भी हो । मूढ पुरुष उन संपत्तियों में हर्ष अथवा विषाद करते है । प्राप्त करने योग्य भाग्य ऐसे जिन यात्रा के महोद्यम को छोड़कर भाग्य से प्राप्त होने योग्य ऐसे राज्य के लिए दौड़ना अब उचित नहीं है । जिस मनुष्य के पास महामूल्यवान् सम्यक्त्व रूपी धन है, वह धन से हीन भी धनी है । धन एक भव में सुख के लिए होता है और सुदृष्टिवान् को भव-भव में अनंत सुख होता है। ___ इस प्रकार से कहकर राजा आगे ही चला । एक छत्र-धारक के बिना समस्त भी दास-दासी आदि परिवार स्व गृह की सार करने के लिए गये । राजा ने अपने अलंकारों को अत्यंत गुप्त कर और छत्र
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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