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उपदेश-प्रासाद - भाग १
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उगणासीवा व्याख्यान अब सत्यवादी की स्तुति करते है
सर्व धर्म के कार्यों में सत्य आद्य कहा गया है । उसके बिना कुतीर्थिकों के द्वारा कहा हुआ धर्म निरर्थक हैं।
शास्त्र में सर्व जो तप, जप, ज्ञान, दर्शन आदि धर्म कृत्य है, उन सब में प्रभु ने आद्य-मुख्य सत्य को ही कहा है । सुनते है किकिसी श्रावक का पुत्र निर्धर्मी था। बल से पिता उसे गुरु के पास ले गये । उसने धूर्तपने से प्रतिबोधित हुए के समान आदर सहित गुरु के द्वारा कहे हुए द्वादश व्रत आदि नियमों का स्वीकार किया। नियमों की दृढ़ता के लिए गुरु आदि उसकी प्रशंसा करने लगें। तब उसने कहा कि- गृहस्थ को दुष्पालनत्व के कारण से इन नियमों में से एक द्वितीय व्रत का नियम मुझे खुला हो । इतने से यह समस्त ही मैंने असत्य कहा है, इस प्रकार से उसका आशय था । यह अयोग्य है इस प्रकार से गुरु और पिता आदि ने उपेक्षा की।
उस सत्य के बिना कुतीर्थिकों के द्वारा कहा हुआ धर्म, वह निरर्थक है । जो कि कहते है कि
चार्वाक, कौलिक, ब्राह्मण, बौद्ध और पंचरात्रिकों ने असत्य से ही कदम रखकर इस जगत्को विडंबित किया है । अल्प मृषावाद से भी रौरव आदि नरकों में उत्पत्ति होती है । अहह ! जिन वचन को अन्यथा कहनेवालों की तो क्या गति होगी ? अहो ! मुख का मध्यवर्ती भाग नगर जल के स्रोत के समान है, जिससे कि कीचड़ से आकुलित जल की उपमावाले वचन निकलतें हैं । जो सत्य को ही ज्ञान और चारित्र का मूल कहतें है, उनके चरणों की धूलों से पृथ्वी पवित्र की जाती है।
इस विषय में हंस राजा का उदाहरण है और वह यह है