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उपदेश-प्रासाद - भाग १ क्या करूँ ? काँजी के साथ कटु ककड़ी के मूल को मिलाकर राजा को पिलाए ऐसे तुम्हारे विनाश के उपाय को मैं जानता हूँ, परंतु यहाँ कोई नहीं है, जिसके आगे मैं कहूँ। यह सुनकर उदर में स्थित सर्प ने उसे कहा कि- मैं भी बिल में डाले हुए उष्ण तैल से तुमको मारकर निधि के ग्रहण को जानता हूँ परंतु मैं किसके आगे कहूँ? इस प्रकार से राजा की रानी ने उन दोनों का परस्पर मर्म सुन लिया । रानी ने उन दोनों का कहा किया । राजा निरोगी हुआ । बिल के सर्प का विनाश कर निधि को ग्रहण किया।
इस प्रकार से जो स्व-पर शास्त्रों में निन्दनीय किन्हीं का भी गुह्य प्रकाश नहीं करता, वह ही व्रती जाना जाय ।
तथा अन्य मुद्रा, अक्षर आदि से कूट अर्थ का लेखन वह कूट-लेख है, जैसे कि- राजा के द्वारा लिखे गये पत्र के ऊपर अपर माता ने कुणाल के प्रति कूट-लेख किया था । और उससे महान् अनर्थ हुआ था । कहते है कि-कूट-लेख असत्य होने के कारण से उसके करने में व्रत का भंग क्यों नहीं है ? इस प्रकार से जो सत्य है, परंतु मैंने सत्य वचन का प्रत्याख्यान किया है और यह तो लेखन है, इस प्रकार के अभिप्राय से व्रत से सापेक्ष मुग्ध बुद्धिवाले को अतिचार ही है अथवा अनाभोग आदि से अतिचारता है, इस प्रकार से यह पाँचवा अतिचार है।
___ जिनेश्वरोंने द्वितीय नियम में हेय रूप और मालिन्यता देनेवाले इन पाँच अतिचारों को कहें हैं । व्रतवालें धर्मी पुरुष उनको छोड़कर सत्य से सुंदर गुण को ग्रहण करें।
इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में छठे स्तंभ में अठहत्तरवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।