________________
३८३
उपदेश-प्रासाद - भाग १
कपटता, क्रूरता, चंचलता और कुशीलता, जिनके यें स्वाभाविक दोष है, उन स्त्रियों में कौन रमण करे ?
यह सुनकर वह मौन कर स्थित हुई । एक बार सासु और वधू के कलह होने पर परस्पर मर्म उद्घाटन के विषय में वधू ने उसके चरित्र को कहा । उसे सुनकर उसने सोचा कि- अहो! इतने काल तक पति ने मेरे मर्म को मन में रखा था । अब मंत्र-भेद किया है । उससे मुझे प्राणों से रहा, इस प्रकार से कंठ में फाँसे से प्राणों को छोड़ा । उसे देखकर श्रेष्ठी ने भी वैसा ही किया। पत्नी को छोड़कर श्रेष्ठी के पुत्र ने वैराग्य से दीक्षा ली।
__ इत्यादि सुनकर जो पर गुह्यों को ढंकते हैं, वे धन्य है । क्योंकि
कपास जैसे पुत्र को कोई माता ही जन्म देती है । कपास का छोड़ खुद के अंग (कपास) को देकर गुण(सुतर) से दूसरों के गुह्य को ढाँकता है, अर्थात् धागे से मनुष्यों को वस्त्रों से पूर्ण कर सभी के शरीर को ढाँकता है।
तथा लौकिक शास्त्र में भी कहा है कि
जो अधम पुरुष परस्पर मर्मों को कहते हैं, वें बिल में रहे हुए सर्प के समान स्वयं ही निधन को प्राप्त करते हैं । जैसे कि
सुन्दर नामक पृथ्वीपुर का राजा था । एक दिन वक्र शिक्षित अश्व उसे वन में ले गया । श्रम के वश से अश्व से उतरकर वृक्ष के नीचे सोया । उसके मुख में एक छोटे सर्प ने प्रवेश किया । पश्चात् वह स्व गृह में आया । उदर में रहे सर्प की पीड़ा से गर्दन पर करवत फिरवाने के लिए गंगा के प्रति जाते हुए मार्ग में एक न्यग्रोध वृक्ष के नीचे सोया । तब वायु के भक्षण के लिए मुख में से निकले हुए सर्प से बिल से निकले हुए सर्प ने कहा कि-रे पापिष्ठ ! इसके उदर से निकल जाओ।