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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ ३८१ इस प्रकार से सदा निन्दनीय ऐसे दूसरों के अवर्णवाद को और उसके श्रवण को छोड़ता हुआ गृहस्थ जगत् में रहे जनों के श्लाघ्यता से यहाँ सम्यक् प्रकार से सद्धर्म के योग्य होता है । इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में छट्ठे स्तंभ सत्तहत्तरवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ । - अठहत्तरवाँ व्याख्यान शेष अतिचारों को ही कहते है किविश्वास से जो स्थित है, उनके मंत्र का प्रकाशन, अन्य को गुह्य कहना और पाँचवाँ कूट - लेख हैं । - विश्वास से स्थित-उपगत (आये) हुए जो मित्र, पत्नी आदि है, उनका मंत्र-विचार, उसका प्रकाशन भेद है और उसके अनुवाद रूप से सत्यत्व से यद्यपि अतिचारता नहीं है, तो भी मंत्रित कीये अर्थ के प्रकाशन से उत्पन्न हुए लज्जा आदि से मित्र, पत्नी आदि के मरण आदि के संभव से परमार्थ से इसके असत्यत्व से कैसे भी भंग रूपत्व से अतिचारता ही है । इस प्रकार से यह तृतीय अतिचार है । किसी के संबद्ध हुए को आकार, ईंगित और चेष्टाओं से जानकर उसे अन्य को कहना गुह्य भाषण है। गुह्य छुपाने योग्य, जो सभी को कहने योग्य नहीं है। जैसे कि- ये लोग इस - इस राज विरुद्ध आदि की मंत्रणा कर रहे है । गुह्य भाषण में आकार आदि से गुह्य है और विज्ञान-अधिकारी ही गुह्य को प्रकाशित करता है। मंत्र भेद में तो स्वयं मंत्र का भेदन करता है, इस प्रकार से इन दोनों में भेद है । इस प्रकार से यह चौथा अतिचार है ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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