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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ ३८० नहीं है, पुनः राजा, अमात्य, देव, गुरु, संघ आदि में तो बात ही क्या की जाये ? वहाँ पर भी साधु आदि के अवर्णवाद से भवान्तर में नीच गोत्र, कलंकादि की आपत्ति है, जैसे कि - सीता के समान ही पूर्व भव में मुनि को अभ्याख्यान देने से तीव्र पाप को बाँधकर वह अनंत दुःख को प्राप्त करता है । इस भरत में मृणालकुंडपुर में श्रीभूति पुरोहित था । उसकी पत्नी सरस्वती थी और उन दोनों की पुत्री वेगवती थी । एक बार वहाँ एक साधु आये और वें उद्यान में प्रतिमा से स्थित हुए । लोक भक्ति से उनको वंदन करते थे । साधु की पूजा को देखकर झूठ और मात्सर्य से वेगवती ने लोगों से कहा कि- ब्राह्मणों को छोड़कर इस पाखंडी और मुंड की क्यों पूजा कर रहे हो ? स्त्री के साथ क्रीड़ा करते हुए मैंने इनको देखा है, इस प्रकार उसने झूठा आल दिया । उससे मुग्ध जन साधु की पूजा आदि से निवृत्त हुए । मुनि ने उसे जानकरमेरे निमित्त से जिनशासन की अपभ्राजना न हो, इस प्रकार से मन में कर-जब तक यह कलंक नहीं उतरेगा, मैं तब तक भोजन नही करूँगा, इस प्रकार से प्रतिज्ञा कर कायोत्सर्ग से स्थित हुए । तब शासन देवता के सांनिध्य से वेगवती के देह में तीव्र वेदना उत्पन्न हुई, अरति का प्रादुर्भाव हुआ और सहसा ही मुख सूना हुआ । पश्चात्ताप से युक्त हुई वह मुनि के समीप में जाकर सर्व लोगों के समक्ष स्व निन्दा करती हुई कहने लगी कि- मैंने मात्सर्य से व्यर्थ ही साधु को वह आल दिया है, इस प्रकार से क्षमा माँगकर उनके पैरों में गिर पड़ी । शासनदेवता ने उसे सज्ज किया। धर्म को सुनकर और दीक्षा लेकर वह सौधर्म में देवी हुई । वहाँ से च्यवकर वह जनक की पुत्री सीता हुई । झूठा आल देने से उसने यहाँ कलंक को प्राप्त किया था । लोगों ने पुनः मुनि की पूजा की ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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