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उपदेश-प्रासाद
भाग १
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ग्रहण किया है ? इस एक रत्न मंजूषा को लेकर मैं अपने घर जा रहा हूँ । इस वाक्य को सुनकर वें दोनों स्व-महल में गये ।
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प्रातः भांडागारिक ने थोडा इधर-उधर कर पूत्कार किया । नगर रक्षक को बुलाया । राजा ने कोशाध्यक्ष से पूछा कि - क्या गया है ? उसने कहा- दस पेटियाँ । राजा और मंत्री परस्पर मुख को देखकर उसे बुलाया और पूछा कि - रात्रि में तूंने क्या-क्या लिया था । श्रीकान्त ने भी - यें दोनों रात्रि में मिलें थें इस प्रकार से निश्चय कर कहा कि - हे स्वामी ! क्या आप मेरा कहा भूल गये । आपके देखते हुए ही मैंने आजीविका के लिए एक पेटी ली थी। राजा ने कहा कि- तुम सत्य कैसे कह रहे हो ? और मुझसे क्यों नही डरते हो ? उसने कहा कि - हे राजन् ! वायु के समूह से बड़े वृक्ष के समान ही जिससे स्वकल्याण भग्न हो, वैसा चतुर पुरुष प्रमाद से भी असत्य वचन को न कहें ।
रुष्ट हुए आप तो यहाँ एक भव के सुख का हनन करोगें, किंतु सत्यव्रत के भग्न हो जाने पर अनंत भवों तक दुःख होगा ।
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यह सुनकर राजा ने उसे शिक्षा दी कि - द्वितीय व्रत के समान ही तुम अन्य भी व्रतों को ग्रहण करो । उसने वैसा किया । जीर्ण कोशाध्यक्ष को निकालकर राजा ने उसके स्थान में श्रीकान्त को रखा । क्रम से वह श्रीमहावीर का श्रावक हुआ ।
जिनदास के वाक्य से दृढ आत्मा की बुद्धिवाले श्रीकान्त चोर ने एक नियम को अंगीकार किया था । उसने यही पर लोगों के द्वारा स्तुति कीये गये इष्ट फल को प्राप्त किया, उससे तुम इस व्रत को स्वीकार करो ।
इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में छट्टे स्तंभ में छिहत्तरवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ ।