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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ से कच्चे पात्र के समान ही नारीयों की योनि तरल होती है । I हे नारद ! वर्षा अत्यंत कष्टकारी काल है, जीवन देने से वह प्रिय है । उससे नारीयों को भर्त्ता - भर्त्ता इस प्रकार से प्रिय है । अग्नि काष्ठों से तृप्त नहीं होती है और न ही समुद्र नदीयों से । यम सर्व प्राणियों से और स्त्रियाँ पुरुषों से तृप्त नहीं होती है । हे नारद ! नारी अग्नि-कुंभ के समान है और पुरुष घी-कुंभ के समान है । उससे नारीयों के संसर्ग को छोड़ें । इस प्रकार से द्रोपदी के सत्य कहने पर प्रथम सत्य में अङकुर, द्वितीय में पत्र, तृतीय में शाखाएँ, चतुर्थ में मञ्जरियाँ और पञ्चम में परिपक्व आम के फल उत्पन्न हुए। सभी सदस्यों ने उसकी प्रशंसा की । उन मुनियों का पारणा हुआ । I लौकिक शास्त्र में इस प्रकार सत्यव्रत का वर्णन किया गया है । इसलिए हे श्रीकान्त ! तुम भी सत्य व्रत को ग्रहण करो । उसने स्वीकार किया । जिनदास ने कहा कि- आजीवन तुम प्राण के समान ही व्रत का पालन करना । उसने कहा राज्य जाय, लक्ष्मी चली जाय और विनश्वर प्राण चले जाय । जो मैंने स्व- मुख से कहा है, वह शाश्वत वचन न जाय । | एक बार रात्रि में चोरी के लिए निकला। मार्ग में श्रेणिक और अभय मिलें । उन्होंने श्रीकान्त से पूछा- तुम कौन हो ? उसने कहा कि- आत्मीय ही हूँ । मंत्री ने कहा कि- तुम कहाँ जा रहे हो ? उसने कहा- चोरी करने के लिए राज-कोश में जा रहा हूँ । पुनः पूछा- तुम कहाँ रहते हो ? चोर ने कहा कि- अमुक पाटक में । तेरा नाम क्या है ? श्रीकान्त ! उन दोनों ने सोचा कि - यह आश्चर्य है, जो चोर है, वह ऐसा कैसे कह रहा है ? इस प्रकार से विचार कर दोनों आगे चलें । चोर वहाँ से पेटी लेकर जाते हुए पुनः मिला। उन्होंने पूछा कि - तूंने क्या-क्या ३७५
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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