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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ ३६६ - सुनकर पाठक ने उनकी परीक्षा के लिए एक-एक आटे के मुर्गे को देकर कहा कि - हे वत्स ! जहाँ कोई भी न देखता हो, वहाँ इनका वध करना । वसु और पर्वत शून्य स्थान में मारकर आये । नारद एकांत में जाकर सोचने लगा कि - यह गुरु का वाक्य है - जहाँ कोई भी न देख रहा हो, वहाँ इसे मारना । तीनों जगत् में वह स्थान नहीं है । सर्वज्ञ और सिद्धों को क्या अगम्य है ? ज्ञानियों को अगोचर वस्तु ही नहीं है । परंतु यह मुझे देख रहा है और मैं इसे देख रहा हूँ। मेरी प्रज्ञा की परीक्षा करने के लिए गुरु ने ऐसा आदेश दिया है । इस प्रकार से सोचकर उसे अक्षत ही लेकर गया । अध्यापक ने कहा कि- तूंने मेरा कहा क्यों नहीं किया ? नारद ने कहा कि - हे भगवन् ! हृदय में विचार करें । आपके द्वारा आदेश दिये हुए को सत्य साबित किया है, इस प्रकार से कहकर उसने स्व-अभिप्राय का ज्ञापन किया । उससे गुरु ने सदयपने से उसे स्वर्गगामी जाना । अन्य दो को नरकगामी जानकर गुरु ने सोचा कि 1 इस उसे पढ़ाने से भी क्या जिससे कि आत्मा नरक में जाय, प्रकार के वैराग्य से उपाध्याय ने गुरु के समीप में प्रव्रज्या ग्रहण की। क्रम से लोगों ने पर्वत को उसके पद पर स्थापित किया । अभिचन्द्र राजा के पद पर वसु राजा हुआ । एक बार वन में एक शिकारी ने मृग के ऊपर बाण छोडा, वह स्खलित हुआ । उसने आकर के हाथ के स्पर्श से स्फटिक शिला का निश्चय किया । पश्चात् उसने राजा के आगे कहा । राजा ने उसे मँगाकर रहस्य में आप्त जनों से स्व आसन के नीचे स्थापित करायी । आकाश में स्थित उस आसन को देखकर लोग कहने लगें कि - यह सत्य की महिमा है, इस प्रकार से प्रसिद्धि हुई । एक बार नारद पर्वत से मिलने के लिए आया । तब वह अजों
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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