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उपदेश-प्रासाद - भाग १
इत्यादि वैराग्य से स्व-पुत्र को राज्य के ऊपर स्थापित कर और प्रव्रज्या लेकर एकावतारी देव हुआ। वेदोनों हाथी पहली नरक में गये।
जिसने गृहस्थ भाव में देश से व्रत को लिया था, उसने उस आद्य व्रत को उत्कृष्ट से लिया । सर्वजीवों में दया-पर ऐसे इस चन्द्र ने देवत्व को प्राप्त किया।
इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में पञ्चम स्तंभ में चौहत्तरवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
यह पञ्चम स्तंभ समाप्त हुआ ।
छठ्ठा स्तंभ पचहत्तरवा व्याख्यान अब द्वितीय व्रत को कहते हैं
सूक्ष्म और बादर के भेदों से मृषावाद दो प्रकार से कहा गया है । तीव्र संकल्प से उत्पन्न स्थूल है और हास्यादि से उत्पन्न सूक्ष्म
है।
वहाँ श्रावक को सूक्ष्म मृषावाद में यतना है और लोक में भी अकीर्ति आदि का हेतु होने से स्थूल तो त्याज्य ही है । वह बादर कन्यालीक आदि है, उसे कहते हैं
कहीं पर भी असत्य नहीं बोलना चाहिए, यह द्वितीय अणुव्रत है । विशेष से भूमि, कन्या, गो, धन-स्थापन और साक्षी में सर्वथा नहीं बोलना चाहिए ।