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________________ ३६६ उपदेश-प्रासाद - भाग १ अंग-रक्षक किया । क्रम से उसे देश का स्वामी किया । अब एक दिन चन्द्र का अग्रज सूर युवराज के पद से अतृप्त हुआ रात्रि के समय पराङ्मुख से सोये पिता को शस्त्र से मारा । रानी ने राजा का घात कर पलायन करते उसे देखा । यह राजा का घातक जा रहा है, इस प्रकार से कोलाहल हुआ । स्व-पुत्र को जानकर राजा इस प्रकार से सोचने लगा कि चन्दन के समान एक पुत्र सौरभ के लिए होते है और वालक के समान अन्य बालक मूल के उच्छेदन के लिए होते हैं। . इस प्रकार से विचार कर सूर को देश से निर्वासित कर राजा ने बुलाये हुए चन्द्र को राज्य के ऊपर निवेशित किया । घात की पीड़ा से सूर पुत्र पर रौद्र ध्यान से युक्त हुआ राजा मरकर चीता हुआ । भ्रमण करता हुआ सूर उस वन में आया । पूर्व के वैर से चीते ने उसे मार दिया। वह भिल्ल हुआ । उसी वन में शिकार करते हुए उसे पुनः हाथी ने मारा । उस भिल्ल के बंधु ने उस चीते को भी मार दिया । दोनों भी सूअर हुए । परस्पर वैर से युक्त उन दोनों को भिल्ल ने मार डालें । वे दोनों हाथी हुए । वें दोनों चन्द्र राजा के आगे भी युद्ध करने लगें । एक दिन देशना के अंत में राजा के द्वारा पूछने पर सुदर्शन केवली ने उन दोनों के वैर का कारण कहा । उसे सुनकर राजा ने सोचा कि- अहो! कर्म रूपी नटों के द्वारा विचित्र भव-नाटक कराया गया है । रंक राजापने को, राजा रंकपने को, अठारह सागरोपम की आयुवाला देव क्षण में लंबे कानवालें कुत्तापने को प्राप्त करता है और कुत्ता देवपने को, क्योंकि प्राणी जो अत्यंत मोह रूपी निद्रा का आश्रय लेते हैं और जो संसार रूपी कूएँ के गड्ढे में गिरतें है तथा सद्गति के मार्ग को नहीं देखते हैं, वहाँ पर मिथ्यात्व रूपी अंधकार ही हेतु हैं।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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