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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ ३६५ 1 - कि- मैं आज के बाद कोई भी जीव- वध नहीं करूँगा । इत्यादि ध्यान में तत्पर उसने जाति-स्मरण ज्ञान प्राप्त किया । हीन कुल में उत्पत्ति को पूर्व में विराधित कीये हुए चारित्र का फल मानकर दीक्षा ग्रहण करने के लिए उत्सुक हुआ पश्चाताप के द्वारा क्षपक श्रेणि में शुक्ल ध्यान से केवलज्ञान को प्राप्त किया । आसन्न में रहे देवों ने महोत्सव किया । उनके शिष्य ने देव दुन्दुभि के शब्द को सुना। गुरु ने कहा किहे वत्स ! तुम देखो, उस मच्छीमार को महा-ज्ञान उत्पन्न हुआ है । तुम वहाँ जाकर मेरे भवों को पूछो। शंका और विस्मय सहित वह शिष्य भी वहाँ जाकर स्थित हुआ । तब ज्ञानी ने कहा कि - तुम क्या विचार कर रहे हो ? वह मैं ही हूँ । द्रव्य और भाव से हिंसा के त्याग से मैंने इसे प्राप्त किया है । तुम्हारें गुरु के भवों को उस वृक्ष के नीचे स्थित उन पत्रों के तुल्य गणना से जानो । तुम इसी भव में सिद्धि को प्राप्त करोगें । उसे सुनकर शिष्य ने जाकर गुरु से कहा । गुरु उसे सुनकर नाचते हुए हर्षित होने लगे कि- अहो ! परिमित भवों में मेरी सिद्धि हैं । ज्ञानी का वाक्य धन्य और सत्य है, इस प्रकार से कहकर आगे विहार किया । I हिंसा का त्याग कर उस मच्छीमार ने भी क्षण भर में चरम ज्ञान को धारण किया । इसलिए व्रतों में प्रधान अहिंसा व्रत है । इत्यादि गुरु के द्वारा कही हुई देशना को सुनकर चन्द्र ने अपराध सहित जीवों के वध का निषेध किया । राजादि के आदेश से भंग नहीं, इस प्रकार से व्रत को लेकर वह उस नगर के राजा की सेवा करने लगा । एक बार वन में राजा के सुभटों ने चोर को घेरा । तब राजा ने कहा कि - हे शूर ! तुम इस दुर्धर चोर को मार दो । युद्ध के बिना प्राणी हनन के नियम को चन्द्र के द्वारा कहने पर संतुष्ट हुए राजा ने उसे स्व
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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