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उपदेश-प्रासाद - भाग १
३६४ नगर से निकलकर विदेश में पर्यटन करते हुए एक बार गुरु के मुख से इस वाक्य को सुना
प्रायः कर पुण्य-देही गृहस्थों के द्वारा अपराध सहित भी त्रस नहीं मारे जाये । पुनः उन निरपराधियों की तो बात ही क्या की जाये?
मछलियों के वध आरंभ में मच्छीमार के निज अंगुलि का छेदन हुआ और शस्त्र से हिंसा को छोड़कर वह ऋद्धि का पात्र हुआ।
पृथ्वीपुर में एक मच्छीमार था । नहीं चाहते हुए भी उसे स्वजनों ने मछलियों के बंधन के लिए जाल आदि समर्पित कर किसी भी प्रकार से भेजा । वह मछलियों को लेकर आया । स्वजनों ने तीक्ष्ण शस्त्र दिया । उस शस्त्र से मछलियों का वध करते हुए स्व अंगुलि का छेदन हुआ । उस वेदना से व्याप्त हुए उसने सोचा कि- हिंसा प्रिय जीवों को धिक्कार हो, क्योंकि-तुम मरो, इस प्रकार से कहा जाता हुआ जीव भी दुःखी होता है।
इस ओर नगर से स्थंडिल भूमि में जाते हुए गुरु और शिष्य ने शस्त्र हाथ में लीये मच्छीमार को देखा । तब शिष्य ने गुरु से पूछा किहे भगवन् ! ऐसे जीव कैसे-भी संसार सागर को नही तिरेंगें । गुरु ने कहा कि- हे वत्स ! मौनीन्द्र धर्म में कोई एकान्त से कदाग्रह नही हैं, क्योंकि- अनेक भवों से संचित हुए कर्मों को भाव और अध्यात्म के ज्ञान से तथा शुभ परिणाम से क्षण भर में विनष्ट करते हैं । जो कि कहा गया है कि
जिस-जिस समय जीव जिस-जिस भाव से युक्त होता है, वह उस-उस समय में शुभ-अशुभ कर्म को बाँधता हैं।
इस प्रकार से शिष्य को उत्तर रहित कर गुरु ने ऊँचे स्वर से एक पद कहा कि-जीव-वध महा-पाप है, इस प्रकार से कहकर गुरु आगे चले गये । मच्छीमार ने उस पद के अनुसार से चिन्तन किया