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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ स्व-स्व आरंभ में प्रवर्त्तन करतें हैं । रसोईयाँ, तिल को पीलनेवाला, जार, चोर, किसान, कसाई, रहट यंत्र का वाहक, धोबी, मच्छीमार आदि की भी परंपरा से कुव्यापार की प्रवृत्ति होती है। जैसे कि श्रीवीर जयन्ती के प्रश्नोत्तर में कहा कि- अधर्मी पुरुषों का सोना ही श्रेष्ठ है और धार्मिक पुरुषों का जागना श्रेष्ठ हैं । इस विषय में वृद्धों से यह प्रबंध सुना जाता है कि -- ३६२ कोई साधु रात्रि के समय में स्व-शिष्यों को पूर्व सूत्र की वाचना देते थें। एक बार गुरु चूर्ण औषधि से संमूर्च्छिम मत्स्यादि की उत्पत्ति के बारे में कह रहे थें। तब एक मच्छीमार चोर ने उसे सुना। चूर्ण प्रयोग को मन में धारण कर और गृह जाकर उसे किया । बहुत मछलियों की उत्पत्ति हुई । आनंदित होते हुए नित्य उसे कर वह कुटुंब का पोषण करने लगा । इस प्रकार से बहुत काल गया । - एक बार वह विद्या-चोर गुरु को नमस्कार कर कहने लगा कि- हे स्वामी ! मैं आपकी कृपा से कुटुंब सहित सुख से जी रहा हूँ और अक्लेश से दुर्भिक्ष आदि में अनेकों का उपकार भी करता हूँ । मुनि ने कहा- कैसे ? उसने कहा कि उस रात्रि में आपने शिष्यों को चूर्ण से जीवोत्पत्ति कही थी, उससे मैं जी रहा हूँ । इस प्रकार से सुनकर स्व-प्रमाद दोष की निन्दा कर और परंपरा से वृद्धि होते हुए पाप का निश्चय कर उस पास की वृद्धि को नष्ट करने के लिए गुरु ने उसे कहा कि- मैं तुझे अन्य श्रेष्ठ उपाय कहता हूँ, तुम सुनो ! अमुकअमुक द्रव्यों को मिलाकर एकान्त कमरे में बाह्य से दोनों कपाटों को दृढ़ करवाकर मध्य में स्थित होकर जल आदि में डाले गये चूर्ण से स्वर्ण वर्णवाली मछलियाँ होंगी । उनको खाते हुए तेरा भी शरीर पुष्टिमंत होगा । उसे सुनकर और गृह जाकर गुरु के द्वारा आदेश दिये हुए उस चूर्ण से सिंह उत्पन्न हुआ । उसके द्वारा शीघ्र से भक्षण किया -
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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