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उपदेश-प्रासाद
भाग १
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द्वारा देखे गये। मुनि ने उनको धर्म सुनाया । उन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण की । उनके साथ वीर को वंदन करने के लिए जाते हुए उस मुनि को अंतराल में गोशाला मिला और वह कहने लगा कि - वृथा ही इस तप से तपते हो । यहाँ पर शुभाशुभ का हेतु नियति ही प्रमाण है । क्योंकि
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प्राणी जिसे सैकड़ों उपक्रमों से साधने के लिए समर्थ नहीं होता है, नियति के बल से वह लीला से होता हुआ दिखायी देता है । मुनि ने कहा कि यह योग्य नहीं है। दोनों से कार्य की सिद्धि होती है । जैसे कि
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थाली में रहा हुआ भोजन, वह कर्म से प्राप्त हुआ है । वह जब तक हाथ उद्यमवंत न हो तब तक मुख में प्रवेश नहीं करता ।
इत्यादि से उसे वचन रहित किया । अब कुमार - ऋषि हस्ति तापस आश्रम में आया । वहाँ तापस नित्य ही हाथी को मारकर मांस खाते थें । उनका यह मत था कि- अग्नि, वनस्पति के कण आदि बहुत जीवों के हनन में महा - पाप हैं, इसलिए एक महा-जीव के वध में बहुत जीवों का घात नहीं है । इस प्रकार से मानकर तापसों ने एक हाथी को बाँधा । मुनि उसके संमुख आये । साधु को देखकर वह हाथी लघु-कर्मपने से आलान स्तंभ को उखाडकर दोनों पैरों को बार-बार स्पर्श करते हुए प्रणाम करने लगा । उस अतिशय को देखकर प्रतिबोधित हुए तापसों ने जिनेश्वर के वचन को स्वीकार किया । पश्चात् श्रीवीर को नमस्कार कर उन्होंने साधु व्रतों का स्वीकार किया । समवसरण में अभय सहित श्रेणिक ने आर्द्रकुमार - ऋषि से हस्ति-मोचन का वृत्तांत पूछा ।
मुनि ने कहा कि - हे महाराज ! हाथी का मोचन आश्चर्यकारी नहीं है । तन्तु पाशों से मोचन मुझे दुष्कर लगता है । उसके बारे में