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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ ३५८ करोगी? प्राप्त करने पर भी बहुत भिक्षुओं के मध्य में ये वें ही है इस प्रकार से तुम कैसे जानोगी ? इसलिए तुम अन्य वर को वरो । श्रीमति ने कहा कि- हे पिताजी ! यह नहीं सुना है कि राजा एक बार बोलतें हैं, सज्जन एक बार बोलतें हैं और कन्याये एक बार दी जाती हैं, ये तीनों एक बार-एक बार ही । परंतु उनके पाद चिह्न से मैं उनको पहचानती हूँ । वहाँ से आरंभ कर वह श्रेष्ठी मुनियों को दान देने लगा। एक दिन बारह वर्ष के अंत में वें मुनि आये । चिह्न को देखने से उनको पहचानकर श्रीमति ने कहा कि- हे स्वामी ! तब थूकने के समान मेरा त्याग कर चले गये थें । अब कहाँ जाओगे ? दिव्य वाणी का अनुस्मरण करते हुए मुनि ने श्रीमति से विवाह किया । क्रम से पुत्र का जन्म होने पर आर्द्रकुमार ने कहा कि- हे प्रिये ! तुझे पुत्र हुआ है, मैं जा रहा हूँ। उसे सुनकर श्रीमति तकवा लेकर बैठी । उसे देखकर पुत्र ने कहा कि- हे माता ! तुमने यह क्या प्रारंभ किया है ? उसने कहा कि- हे वत्स ! तेरे पिता तपस्या के लिए जाने की इच्छा कर रहे है, अब मुझे तकवा ही शरण है । पुत्र ने कहा कि- हे माता ! मैं मेरे पिता को बाँधकर स्थापित करता हूँ। इस प्रकार से कहकर तकवें के धागे से उसके पैरों को लपेटते हुए इस प्रकार से कहने लगा कि- हे पिताजी ! मैंने आपको बाँध दिया है, अब आप कहाँ जाओगे ? इस प्रकार की उसकी चेष्टा से आर्द्र चित्तवाला हुआ आर्द्रकुमार दोनों पैरों में लपेटे हुए तन्तुओं की संख्या से बारह वर्ष पर्यन्त गृह में रहा । अवधि के पूर्ण हो जाने पर पुनः दीक्षा ग्रहण कर पवन के समान पृथ्वी के ऊपर विहार करने लगा। इस ओर निज पिता के द्वारा रक्षा के लिए रखे हुए सुभट, कुमार की अन्वेषणा करते हुए चोरी के द्वारा जीवन जीते हुए मुनि के
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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