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उपदेश-प्रासाद - भाग १
३५७ से उसके आगे निज अभिप्राय कहा । उसने भी सोचा कि- यह मेरे
और अपने व्रत को न तोड़ दे, इस प्रकार के भय से अनशन के द्वारा स्वर्ग में गयी । मैं भी उस दुःख से अनशन से देव सुख को भोग कर यहाँ पर उत्पन्न हुआ हूँ। मेरे गुरु अभय को धन्य हो जिसने मुझे प्रतिबोधित किया है।
____ अब अभय के दर्शन के लिए उत्सुक हुए कुमार ने पिता से कहा कि- हे पिताजी ! मैं राजगृह को देखने के लिए जाता हूँ। पिता ने उसे निषेध कर उसकी रक्षा के लिए पाँच सो सुभटों को रखें । वह भी उनको ठगकर और जहाज में चढकर आर्य देश में आया । वह बिंब अभय को विसर्जित कर तुझे भोग्य-फलवाला कर्म है, इस प्रकार की वाणी से देवताओं के द्वारा निषिद्ध किया गया भी प्रत्येकबुद्ध उसने सहसा स्वयं ही व्रत को ग्रहण किया । क्रम से वसन्तपुर के उद्यान के देव-कुल में कायोत्सर्ग से खड़े हुए।
इस ओर वह बन्धुमती का जीव उस नगरवासी श्रेष्ठी के गृह में श्रीमति नामकी पुत्री हुई । सखियों से युक्त श्रीमति वहाँ पर खेलने के लिए आयी । वहाँ पर बालिकाएँ परस्पर कहने लगी कि- हे सखियों! तुम वर को वरो । तब वें किन्ही-किन्ही वरों को वरने लगीं । श्रीमति ने कहा कि- मैंने इस मुनि को वरा है । तब यह आकाश-वाणी हुई कीहे कन्या ! तूंने सुंदर वर वरा है, इस प्रकार से कहकर दुन्दुभि के गर्जना शब्द पूर्वक देव ने रत्नों की वृष्टि की । गर्जना से भय-भीत हुई वह मुनि के पैरों में लगी । अनुकूल उपसर्ग को जानकर मुनि ने अन्यत्र विहार किया । द्रव्य को ग्रहण करने के लिए वहाँ पर राज-पुरुष आये । उनको निषेध कर देव ने कहा कि- धन को इसके वरण में दिया है। तब उसके पिता ने धन को ग्रहण किया । पश्चात् पिता ने पुत्री से कहा कि- हे वत्से ! भँवर के समान भ्रमण करते उन मुनि को तुम कैसे प्राप्त