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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ ३५४ संपदा मिली । वरधनु को सैनापति पद के ऊपर अभिषेक कर दीर्घ के समीप में भेजा । तत्पश्चात् ब्रह्मदत्त आकर निज चक्र से दीर्घ के शरीर को सिर विहीन कर स्व-गृह में आया और अनुक्रम से उसने षट्खंड भरत को साधा। पूर्व में अटवी में अकेले भ्रमण करते हुए ब्रह्मदत्त को एक ब्राह्मण ने पानी पिलाया था । चक्रवर्ती पद को प्राप्त उसे जानकर, बहुत सैन्य में वह मुझे कैसे जानेगा ? इस प्रकार सोचकर वह ब्राह्मण जीर्ण छाज, हार और पादुका आदि से असमान रूप कर भ्रमण करने लगा । उसे देखकर राजा ने स्व सेवक से उसे बुलाया और पहचान कर संतुष्ट हुए राजा ने उसे वर दिया । स्त्री के वचन से ब्राह्मण ने गृहगृह में भोजन और दो दीनारों की याचना की । राजा ने वैसा किया । एक बार ब्राह्मण ने कहा कि- तुम्हारा भोजन दिलाओ । चक्रवर्ती ने कहा कि- मेरा भोजन मुझे ही जीर्ण होता है । ब्राह्मण ने कहा कि- तुम कृपण हो, देने में समर्थ नहीं हो । तब राजा ने उसे कुटुंब सहित भोजन कराया । वह मदन से उन्मत्त हुआ और रात्रि में माता आदि में परस्पर पशु के समान प्रवृत्त हुआ । मद के उतर जाने पर वह लज्जित हुआ । यह सर्व ही इसने किया है, इस प्रकार के रोष से उस ब्राह्मण ने एक बार बाँस की गेंदों के प्रयोग से पीपल के पत्रों को छिद्र सहित करते हुए बकरी के पालक को देखकर और उसे थोड़ा धन समर्पित कर चक्रवर्ती के नयनों को खत्म करवाया । उसे पकड़कर मारने लगें । रे, तूंने इस प्रकार से क्यों आचरण किया है ? इस प्रकार पूछने पर उसने ब्राह्मण को दिखाया । तब उसे कुटुंब सहित मार दिया । पश्चात् ब्राह्मण की जाति से रुष्ट हुए चक्रवर्ती ने आदेश दिया कि- तुम प्रति-दिन ब्राह्मणों की आँखों को निकालकर ले आओ । बहुत जीवों का वध मानकर मंत्री ने निर्बीज कीये हुए वट
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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