________________
३५३
उपदेश-प्रासाद - भाग १ वे सब राजा ब्रह्म के पास आये । उतने में शिरो-रोग के उत्पन्न होने पर ब्रह्म राजा उन चारों राजाओं के गोद में पुत्र को रखकर-तुम इस राज्य के संप्रदाय को कराना, इस प्रकार से कहकर मरण को प्राप्त हुआ । वें राजा भी दीर्घ को वहाँ छोड़कर स्व राज्य में गये । पश्चात् दीर्घ चुलनी में आसक्त हुआ । उसके भाव को जानकर धनु मंत्री ने वरधनु नामक स्व-पुत्र को बताया कि- तुम एकांत में इस स्वरूप को चुलनी के पुत्र ब्रह्मदत्त को ज्ञापन करना । उसने ज्ञापन किया । ब्रह्मदत्त कोकिला और कौएँ के संबंध को कराता हुआ अंतःपुर में जाकर और कौएँ को मारकर कहने लगा कि- अन्य भी जो इस प्रकार से करेगा, उसका मैं निग्रह करूँगा । दीर्घ ने चुलनी के प्रति उस वार्ता को कहा कि- मैं कौआ हूँ और तुम कोकिला हो । उसने कहा कि- यह बालक हमारे स्वरूप को क्या जानता हैं ?
पुनः एक बार भैंस और हथिनी के युगल को लाकर पूर्व में कहे हुए वाक्य को कहकर भैंस को मार दिया । तब दीर्घ ने सोचा किइसने मेरे पाप को जान लिया है और अन्य वचन से मुझे शिक्षित कर रहा है, इस प्रकार से विचार कर उसने रानी के प्रति इस विचार का ज्ञापन किया । तब उसने कहा कि- यह पुत्र मारा जाये, हम दोनों के कुशलत्व में बहुत पुत्र होंगे । उसने भी स्वीकार किया । पश्चात् सामन्त की पुत्री से विवाहित कर ब्रह्मदत्त के शयन के लिए जतु (लाख) गृह कराकर दिया । वरधनु मंत्री ने गुप्त वृत्ति से उस गृह के मध्य से नगर के उद्यान पर्यंत सुरंग खुदवाई । शुभ दिन में जतुगृह में वधूऔर वरधनु सहित प्रविष्ट हुए कुमार को रात्रि के दो प्रहर व्यतीत हो जाने पर गृह प्रज्वलित हुआ। वें दोनों सुरंग के द्वारा निकलकर पूर्व द्वार के ऊपर छोड़ें हुए अश्व युगल पर चढकर बाहर निकल गये । पृथ्वी के ऊपर भ्रमण करते हुए ब्रह्मदत्त को सार्वभौम (चक्रवर्ती) की