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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ ३५२ युक्त जल में तो अनंत जीवों का वध भी होता है । यदि प्रमाद से युक्त मुनि होता है तब, अन्यथा नहीं । तथा भगवती अंग में कहा गया है कि- केवलज्ञानी, से भी गमनागमन और चक्षु के चालन से बहुत जीवों का घात होता हैं । योग के व्यापार से जो कर्म बद्ध हुआ है, 1 उसे प्रथम समय में बाँधते हैं, द्वितीय समय में अनुभव करते है और तृतीय समय में उसकी निर्जरा को प्राप्त करते हैं । अप्रमत्त होने के कारण से वह कर्म-बंध बहुत काल तक नहीं रहता । तथा प्रथम अंग में कहा गया है कि- सहसाकार आदि से किसी मुनि ने अपक्व लवण को ग्रहण किया । गृहस्थ उस लवण को वापिस ग्रहण नहीं करता । तब मुनि उसे जल में मिश्रित कर पीये । जिनाज्ञा के पालन में तत्पर होने से पृथ्वीकाय की हिंसा नहीं होती । गृहस्थों को भी जिन-पूजा आदि में अंदर के दया भाव से हिंसा नहीं होती । पूर्व पूज्यों ने हिंसा तीन प्रकार से कही हैं- अंदर दया के परिणाम से बाह्य से क्रिया करते हुए को हिंसा, वह स्वरूप से हिंसा होती है । कृषि आदि हेतुता से, हेतु हिंसा होती है । अंदर कलुषित परिणाम से निर्दयता, वह अनुबंध से हिंसा होती है । 1 वह 1 राजा यशोधर ने माता के वचन से आटे से कीये हुए मुर्गे की हिंसा से दुरन्त दुःख संतति को प्राप्त किया था । बाह्य स्वरूप हिंसा के अभाव में भी अनुबन्ध हिंसा के ध्यान से ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आदि के समान ही नरक की प्राप्ति होती है और वह संबंध यह हैं - कांपीलयपुर के स्वामी ब्रह्म राजा को चार मित्र थें- काशी देश का राजा कटक, गजपुर का स्वामी करेणु (कणेरु), कोशल का राजा दीर्घ और चंपा देश का स्वामी पुष्पचूल । यें राजा स्नेह से परस्पर राज्यों में एक-एक वर्ष पर्यंत आनंद सहित रहतें थें। एक बार
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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