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उपदेश-प्रासाद - भाग १ जिसने वहाँ मंगल-दीपक और लुंछन के समय याचकों को बत्तीस लाख स्वर्ण मुद्राएँ दी थी, ऐसा वृद्ध कहतें हैं।
श्रेष्ठ घोड़े और कबूतर के रक्षण से पृथ्वी के ऊपर सुंदर कीर्ति के पात्र हुए मुनिसुव्रत स्वामी और शांतिनाथ वे दोनों मुझे अत्यधिक सुख-दायक हो ।
इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में पञ्चम स्तंभ में सित्तेरवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
इकहत्तरवा व्याख्यान अब हिंसा का कारण प्रमाद ही है, इस प्रकार से यह कहा जाता है कि
प्राणी मरे अथवा न मरे, निश्चय से प्रमादियों को हिंसा होती है । प्राणों का व्यपरोपण होने पर भी प्रमाद रहित को वह नहीं होती
अनुपयोग से जाते हुए प्रमादवंत साधु को भी जीव-वध के अभाव में हिंसा कही गयी हैं । तथा अप्रमादी साधु को गमन करते हुए प्राण घात के होने पर भी हिंसा नहीं होती है, यह भाव हैं । जैसे कि- नदी प्रमुख के उतरने में उपयोग के साथ गमन करते हुए साधु के समान अप्काय की विराधना तीव्र बन्धवाली नहीं होती है । तथा कोई कोटि पूर्व आयुष्यवाला तिल-पीलक जीव प्रति-दिन बीस तिल-पीलन यंत्रों से तिलों को पीलता हैं । पूर्ण जीवन से भी वह उतने तिलों को पीलने में समर्थ नहीं होता है, एक बिन्दु में रहे हुए जितने जीवों को साधु नदी के उतरने से हनन करता हैं । सेवाल से