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उपदेश-प्रासाद - भाग १
३५० हो रहे हो ? उठो और स्व-गृह चले जाओ । यह सुनकर लज्जा से म्लान मुखवाला वह स्व-गृह में आकर इस प्रकार से सोचने लगा कि- हा ! मैंने निज कुल धर्म के त्याग से क्या किया हैं ? इस प्रकार से आर्त्तध्यान से मरकर और बहुत भवों में भ्रमण कर हेराजन् ! सागरदत्त का जीव यह अश्व हुआ है। हमारा पूर्व भव का मित्र मुझे देखकर कह रहा है कि- आज यह राजा मुझे यज्ञ में होमेगा, उससे तुम रक्षण करो, रक्षण करो । इसलिए हे राजन् ! यज्ञ का फल नरक ही है । इस प्रकार के प्रभु के वाक्य से प्रतिबोधित हुए राजा ने उस अश्व को अभय कर स्वयं ने नगर से यज्ञ का निवारण किया । स्वामी के समीप में अनशन लेकर वह अश्व सहस्रार में देव हुआ। तभी वहाँ आकर उस देव ने जिन समवसरण के स्थान में विहार का निर्माण कर उसके मध्य में श्रीजिनमूर्ति और उसके आगे घोड़े की मूर्ति स्थापित की । वहाँ से लेकर वह अश्वावबोध तीर्थ हुआ।
कालान्तर में उसी वन में एक वट की समलिका किसी म्लेच्छ के द्वारा छोड़े हुए बाण से वींधी गयी जिन-मंदिर के समीप में गिर पड़ी। प्रान्त में साधु के द्वारा दीये गये नमस्कार के श्रवण से सिंहल राजा की पुत्री हुई । वहाँ भृगुपुर से आये हुए श्रेष्ठी के छींक के समय में उच्चारण कीये हुए नमस्कार के आद्य पद के श्रवण से जाति-स्मरण ज्ञान को प्राप्त कर तथा माता-पिता को पूछकर भृगुकच्छ में आकर उसने चैत्य-उद्धार आदि किया । वहाँ से लेकर पुनः यह तीर्थ शकुनिका-विहार इस प्रकार के नाम से प्रसिद्ध हुआ । क्रम से इसी तीर्थ में परमार्हत श्रीकुमारपाल के मंत्रीश्वर उदयन के पुत्र जो श्रीशत्रुजय तीर्थ का उद्धारक, श्रीरैवतगिरि के सुगम पग-डंडी के निर्माण कराने आदि अनेक पुण्यों से प्रकट तथा श्रीवाग्भट्ट के श्रेष्ठ अनुज ऐसे अम्बड़ मंत्रीश्वर ने पिता के पुण्य निमित्त उद्धार किया और