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________________ ३४६ उपदेश-प्रासाद - भाग १ गये । राजा चारित्र को ग्रहण कर ग्रैवेयक में इकतीस सागरोपम की आयुवाला देव हुआ। अब बीसवें जिन श्रीमुनिसुव्रत स्वामी का यह अवदात हैं भृगुकच्छ में जितशत्रु राजा ने अश्वमेध यज्ञ के लिए एक अश्व को होम के लिए सज्ज किया । श्रीमुनिसुव्रत स्वामी ने ज्ञान से जाना । उसके रक्षण के लिए प्रतिष्ठानपुर से एक रात्रि में ही साईठ योजन का विहार कर आये । वहाँ जन समूह में जिन ने धर्म देशना प्रारंभ की। कानों को ऊँचा कर प्रभुको पुनः पुनः देखता हुआ अश्व जाति-स्मृति की उत्पत्ति से जिन के समीप में जाकर और भूमि के ऊपर सिर को स्थापित कर स्व वाणी से कहने लगा कि- हे विश्व-रक्षक ! दुःख से पीड़ित मेरा रक्षण करो । इस प्रकार से सुनकर राजा ने प्रभु से पूछा कि- यह अश्व क्या विज्ञप्ति कर रहा है ? प्रभु ने कहा कि- हे राजन् ! तुम इसका पूर्व भव सुनो पद्मिनीपुर में जिनधर्म श्रेष्ठी था और उसका मित्र सागरदत्त शैव था । पूर्व में उसने रुद्रालय कराया था । एक दिन वह मित्र के साथ साधु के पास गया । जिन-मंदिर करण फल को सुनकर सागरदत्त ने जिन-बिंब और मंदिर कराया, वहाँ उसने सद्दर्शन प्राप्त किया। ___ एक बार घी से लिंग पूरण के कीये जाने पर शैवों ने देखने के लिए सागरदत्त को बुलाया । तब वहाँ पर घी के गंध से गमन करती हुई घी की इलियाँ और चींटीयाँ निर्दय शैवों के पद न्यास से हजारों की संख्याओं में मर गयी । यह देखकर सागरदत्त ने कहा कि- आपके पाद न्यासों से करोड़ों की संख्याओं में कीटिकाएँ मर गयी है, यह योग्य नहीं हैं। उससे क्रोधित हुए उन्होंने कहा कि- कुल से आये हुए धर्म को छोड़कर नूतन धर्म को धारण करते हुए क्या तुम लज्जित नहीं
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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