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उपदेश-प्रासाद - भाग १
३४८ दूसरों का वाक्य योग्य नही हैं, क्योंकि निश्चय नय की अपेक्षा से जीव नित्य और गति-आगति आदि से रहित हैं, परंतु व्यवहार की अपेक्षा से नाना पिंडात्मक गोत्व, गजत्व, नरत्व, स्त्रीत्व, खटमल, चींटी आदि जातिमान् प्रत्यक्ष से दिखायी देता ही है, इस प्रकार पिंड के विनष्ट होने से जीव विनष्ट हुआ ही है, जैसे कि- दीपक और उसकी कांति के समान, क्योंकि
तुम मरो इस प्रकार से कहा जाता हुआ भी प्राणी दुःखित होता है । मारे जाते प्राणी को नरक वेदना रूपी फल हो।
इसलिए सर्व धर्मों में दया की ही श्रेष्ठता सुनी जाती है__जीव दया में रत चित्तवालें पूर्व में श्रीशान्तिनाथ और श्रीमुनिसुव्रत स्वामी हुए थे । उनकी कीर्ति आज भी पृथ्वी पर विद्यमान हैं।
इस विषय में यह शान्तिनाथ का प्रबन्ध हैं
जंबूद्वीप के पूर्व विदेह में मंगलावती विजय के रत्नसंचयपुर में शान्तिनाथ का जीव वज्रायुध नामक राजा हुआ था । एक दिन भय-भ्रान्त हुआ एक कबूतर राजा के शरण को प्राप्त हुआ । राजा ने कहा कि- तुम मत डरो । उसके पीछे बाज पक्षी आया । उसने कहा कि- मुझ भूखे को यह पक्षी दो । राजा ने कहा कि- तुम श्रेष्ठ अन्न ग्रहण करो । उसने कहा कि- मुझे मांस में रुचि हैं । राजा ने कहा किमैं अपने देह के मांस को देता हूँ। इस प्रकार से कहने पर बाज ने कहा कि- कबूतर के तुल्य दो ! राजा के द्वारा एक तराजू में अपनी जंघा के मांस खंड को रखने पर भी अतिभार हो जाने पर वह स्वयं तुला में बैठा । उसके साहस से तुष्ट हुए दोनों देवों ने कहा कि- इन्द्र ने तुम्हारी प्रशंसा की थी। उसकी परीक्षा के लिए हम दोनों ने इन रूपों को कीये थें । इस प्रकार से कहकर और पुष्प-वृष्टि कर वें दोनों स्वर्ग में चलें