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उपदेश-प्रासाद - भाग १ वह मत्स्य दुष्ट मन को नियुक्त कर सातवीं में जाता है, इस प्रकार से वृद्ध कहतें हैं । जघन्य से अंगुल के असंख्येय मान देहवाला मत्स्य भी सातवी नरक में जाता है, इस प्रकार से भगवती अंग में कहा गया है। इसलिए मन, वचन और काया के भेद से तीनों प्रकार से भी हिंसा होती है । इस प्रकार से सुनकर राजा आदि ने उस समय में हुए उन दोनों के दुःख स्वरूप को पूछा । ज्ञानी ने सर्व वृत्तांत कहा । जातिस्मृति को प्राप्त करनेवालें देविणी और अरुणदेव ने अनशन ग्रहण किया । महा-संवेग को प्राप्त हुई सर्व सभा ने भी दया-धर्म का स्वीकार किया । वें दोनों स्वर्ग में गये ।
हास्य से, मोह से और दुष्ट बुद्धि से हिंसा वचन न कहें। माता तथा पुत्र सर्ग के अवदात को सुनकर स्व मन को दया सहित करें।
इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में पंचम स्तंभ में उनहत्तरवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
सित्तेरवा व्याख्यान अब यहाँ पर अन्य भी लेश-मात्र से निरूपण किया जाता है! यहाँ पर कोई कहतें हैं कि
यह जीव अछेद्य, अभेद्य, नित्य और सनातन है । हे पांडव ! पिंड के नाश में जीव का नाश कैसे हो सकता है ?
पृथ्वी से निष्पन्न हुए घट के विनष्ट हो जाने पर क्या आकाश विनष्ट हुआ है ? निश्चय से घट का आकाश विनष्ट हुआ है इस प्रकार से जो नहीं है, वह तो कल्पित ही है, इस प्रकार से गीता में कहा गया है। इसलिए युद्ध और यज्ञादि में कोई जीव वध नहीं है, इस प्रकार का