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उपदेश-प्रासाद - भाग १ श्रेष्ठी-पुत्र कौन है ? उसने कहा कि- क्या कहूँ ? अभी यह अघटित कथानक हुआ है । पश्चात् सर्व कहकर वह मित्र स्वभाव से निज हिंसा को करने के लिए उद्यत हुआ । उन्होंने उसे रोका ।
जसादित्य स्व-पुत्री और जमाई को देखकर तथा व्यतिकर को सुनकर अत्यंत दुःखित हुआ । शूलि से अरुण को उतारकर उसने राज-सेवकों को उपालंभ दिया । राजा ने कहा कि- हे श्रेष्ठी ! सहसा करनेवाले यहाँ पर मेरा अपराध हैं।
इसी मध्य में वहाँ पर चार ज्ञानधारी अमरेश्वर मुनि आये । उन्होंने देशना दी कि- अहो ! तुम मोह-निद्रा को छोड़ों, क्योंकि
वचन-काया से दुःखदायिनी हिंसा तो दूर रहो । मन से भी यह चिंतन की गयी मनुष्यों को नरकों में गिराती हैं।
वैभारगिरि के समीप उद्यान में भ्रमण करने के लिए आये हुए लोगों को देखकर कोई रंक भिक्षा को प्राप्त नहीं करता हुआ हृदय में सोचने लगा कि- अहो ! भक्ष्य और भोज्य पदार्थों के होने पर भी मुझे कोई भी नहीं दे रहे है, उससे मैं इन सब को मार डालूँगा । इस प्रकार के कोप से पर्वत के ऊपर चढकर रंक ने उनकी हिंसा के लिए एक बड़ी शिला छोड़ी । वह स्वयं उस शिला के साथ गिरा । सभी लोग भाग गये । शीला के नीचे चूर्ण हुआ वह नरक में गया । तथा आउरपच्चक्खाण सूत्र में भी कहा गया है कि
__ आहार के कारण से मत्स्य सातवीं पृथ्वी में जाते हैं । मन से भी सच्चित्त आहार की प्रार्थना करना उचित नहीं है।
मत्स्य-तंडुल मत्स्य आदि है और वें गर्भज ही है । संमूर्छिम जीवों की असंज्ञीपने से रत्नप्रभा पर्यंत ही गमन होने के कारण से । महा-मत्स्य के मुख के समीप में मत्स्यी तंडुलीय मत्स्य को जन्म देती है । प्रथम संघयण और तंडुल (चावल) के समान प्रमाणवाला