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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ ३४५ 1 देखकर उसने कहा कि हे पापे ! इतनी देर तक क्या तुम शूलि से भेदी गयी थी ? उसे सुनकर चन्द्रा ने भी कहा कि - छींके से उतारकर तूंने भोजन क्यों नही किया ? क्या तेरे दोनों हाथ छेदे गये थें ? इस प्रकार से उन दोनों ने वचन प्रत्ययिक कर्म बाँधा । वहाँ से भव में भ्रमण कर सर्ग का जीव तामलिप्ति में अरुणदेव नामक श्रेष्ठी - पुत्र हुआ । चन्द्रा का जीव पाटलीपुर में जसादित्य की देविणी पुत्री हुई । उसे अरुणदेव को दिया । विवाह के हो जाने पर अरुणदेव अन्य मित्रों के साथ व्यापार के लिए जहाज में चढ़ा । दुष्ट वायु से जहाज भग्न हुआ । पुण्य से लकड़े के पटियें को प्राप्त कर मित्र के साथ तट पर आ गया । क्रम से पाटलीपुर में आकर ईश्वर ने कहा कि - हे मित्र ! यहाँ पर तेरा ससुर का स्थान है, वहाँ पर जाय । उसने कहा कि - ऐसे मुझे वहाँ पर जाना योग्य नहीं हैं। मित्र ने कहा कि- तुम यहाँ रहो, मैं भोजन लाने के लिए नगर के अंदर जाता हूँ । थका अरुण देव - निद्रित हुआ । कोई चोर उस वन में क्रीड़ा करने के लिए आयी हुई देविणी के दोनों कड़ें और हाथों को छेदकर और ले जाकर भाग गया । उसके शब्द और रोदन को सुनकर राज-सेवक भागें । जीर्ण देवालय में जहाँ अरुण सोया था वहाँ पर भय-भ्रान्त हुआ चोर दोनों कड़ें और तलवार उसके पास में छोड़कर भाग गया । निद्रा रहित हुआ अरुण उसे देखकर देवी ने दिया है, इस प्रकार से आनंदित हुआ । उतने में ही उन सेवकों ने कहा कि - रे, अब तुम कहाँ जाओगें ? इस प्रकार से कहकर उनके मारने पर दोनों कड़ें गिर पड़ें। उन्होंनें राजा को ज्ञापन किया । राजा के आदेश से उन्होंनें अरुण को शूलि के ऊपर रखा । इस मध्य में भोजन हाथ में लेकर मित्र वहाँ पर आया । अरुण को दारुण अवस्था में देखकर - हा ! सुख दुःख में एक वात्सल्यवाले मित्र, इस प्रकार से रोने लगा । तब प्रेक्षक लोगों ने उसे पूछा कि - यह - - कुल में
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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