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उपदेश-प्रासाद - भाग १ शिष्यत्वपने से पर्याप्त हुआ, आप इस वेष को ग्रहण करो और मैं मेरे घर में जाऊँगा ! इस प्रकार कहकर जब वह वेष को छोड़कर तथा मुट्ठि को बाँधकर भागने लगा, तब उसकी वैसी चेष्टा को देखकर समस्त इन्द्र आदि भी हँसते हुए कहने लगें कि- अहो ! इन्द्रभूति ने अत्यंत श्रेष्ठ शिष्य का उपार्जन किया ऐसे अद्भुत को देखकर थोड़े लज्जित मनवालें गौतम ने वीर प्रभु को उसके वैर का कारण पूछा । स्वामी ने गौतम से कहा कि-हे वत्स ! इसके द्वारा अरिहंतों के गुणों के चिन्तनों से ग्रन्थि-भेद किया गया है । उस कारण से तुमको और उसे महान् लाभ हुआ है । और जो मुझे देखकर इसे द्वेष उत्पन्न हुआ है, तुम उस स्वरूप को सुनो
पूर्व में पोतनपुर में प्रजापति राजा का पुत्र मैं त्रिपृष्ठ नामक वासुदेव था, तब त्रिखंड का स्वामी अश्वग्रीव प्रतिवासुदेव था । एक दिन उसने अपनी सभा में अपने मृत्यु के बारे में निमित्तज्ञ से पूछा । उस नैमित्तिक ने भी त्रिपृष्ठ के हाथ से आपकी मृत्युहोगी, इस प्रकार से कहा । उससे वह हमेशा त्रिपृष्ठ के ऊपर द्वेष को वहन करते हुए उसके मारण के उपायों को करने लगा । और वें समस्त ही विफल हुए ।
एक दिन उस नगर के वन में चावल के खेत में रहे हुए मनुष्यों पर उपद्रव को करते हुए सिंह को कोई भी मारने के लिए समर्थ नहीं बना, तब उस सिंह के उपद्रव का निवारण करने के लिए प्रतिवासुदेव राजा की आज्ञा से अपनी-अपनी बारी से राजा लोग रक्षा करनें आने लगें । एक दिन प्रजापति राजा की बारी थी । तब पिता को निषेध कर त्रिपृष्ठ वहाँ उस उपद्रव से रक्षण करने के लिए सारथि से युक्त रथ में बैठकर चला । त्रिपृष्ठ के आलाप मात्र से ही वह सिंह उसके सम्मुख दौड़ आया । तब त्रिपृष्ठ ने शुक्ति के संपुट के समान उस सिंह के दोनों ओष्ठों को विदारण कर उसे अर्धमृत किया । तब सिंह