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उपदेश-प्रासाद
भाग १
२२
अपनी निन्दा करने लगा - हा ! मनुष्य- मात्र से मैं मारा गया हूँ ! तब मधुर वचन से सारथि ने उसे सान्त्वना दी कि - हे सिंह ! यह वासुदेव होगा । इसे तुम रंक मात्र मत जानो । जो तुम पुरुषों में प्रभु तुल्य इसके हाथ से मृत हुए हो, तो क्यों विषाद कर रहे हो ? यह मर्त्य-लोक में सिंह हैं और तुम तिर्यंच-योनि में सिंह हो । इस प्रकार के वाक्य से संतुष्ट हुआ सिंह समाधि से मरण को प्राप्त हुआ । उसके बाद वें तीनों ही संसार-समुद्र में बार-बार भ्रमण करते हुए क्रम से यहाँ पर हुए हैं। जो त्रिपृष्ठ का जीव हैं, वह मैं यहाँ पर हुआ हूँ और सिंह का जीव यह किसान हुआ हैं तथा सारथि का जीव तुम इन्द्रभूति हुए हो । पूर्व में तेरे द्वारा यह सिंह, जो मेरे द्वारा मरण को प्राप्त किया गया मधुर वचन से संतुष्ट किया गया था । उससे तुम भव रूपी नाटक में तुम्हारे प्रति स्नेह और मेरे प्रति वैर के कारण को जानो । परन्तु यह किसान यहाँ पर शुक्ल पाक्षिक हुआ हैं । जैसे कि
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जिनको अर्ध पुद्गल - परावर्त्त मध्य का ही संसार शेष हैं, वें जीव शुक्ल पाक्षिक है और अधिक जीव कृष्ण - पाक्षिक हैं । इस प्रकार यह सुनकर अनेक जीवों ने सम्यक्त्व अंगीकार
किया ।
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यह किसान अर्ध पुद्गल - परावर्त्त के मध्य में ही मोक्ष को प्राप्त करेगा और इसने तुझसे ही दो घड़ी पर्यंत सम्यग् दर्शन को प्राप्त किया है, उस कारण से मैंने तुझसे यह उद्यम कराया था । इस व्यतिकर को सुनकर इन्द्र प्रमुख सम्यग् - दर्शन में दृढ़ हुए, उससे हे भव्य-जनों ! तुम भी चित्त में उसे स्थिर स्थापित करों ।
इस प्रकार संवत्सर - दिन परिमित उपदेश - संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में यह तीसरा किसान का प्रबंध संपूर्ण हुआ ।