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उपदेश-प्रासाद - भाग १ और तुझसे इसको महान् लाभ होगा । तथा ही इस प्रकार उसे स्वीकार कर और वहाँ आकर गौतम ने इस प्रकार से कहा कि- हे भद्र! तुझे समाधि हैं ? तुम व्यर्थ ही किस कारण से अनेक एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय आदि जीवों के विराधनामय इस कृषि-कार्य से पाप करतें हो? तुम पापी कुटुम्ब के लिए कैसे आत्मा को अनर्थ में गिरा रहे हो? जैसे कि
जो मनुष्य संसार को प्राप्त हुआ दूसरों के अर्थ से और जो साधारण कर्म को करता है । उस कर्म के वेदन-काल में वें बंधु, बंधुपने को धारण नहीं करते हैं।
उस कारण से तपस्या रूपी जहाज में बैठकर तुम संसार रूपी सुमुद्र से पार उतरो, इस प्रकार सद्-वाक्य रूपी अमृतों से सिंचन किया गया वह किसान गौतम से कहने लगा कि- हे स्वामी ! मैं ब्राह्मण हूँ और सात कन्या आदि के दुष्पूर उदर की पूर्ति के लिए अनेक पाप-कर्मों को कर रहा हूँ। इसके पश्चात् आप ही मेरे भाई और माता हो । आप जो आदेश करोगे, मैं उसे करूँगा और पूज्य के वचन को अन्यथा नही करूँगा । उसके बाद किसान ने भी गौतम के द्वारा अर्पित कीये गये साधु-वेष को स्वीकार किया । व्रत को ग्रहण कीये उसको साथ में लेकर गौतम जिन-अभिमुख चलें । तब उसने पूछा कि-हे पूज्य ! हम कहाँ जा रहे हैं ? गौतम ने कहा कि- जहाँ मेरे गुरु हैं वहाँ जा रहे हैं ! उसने कहा कि- सुर और असुरों से पूज्य आपके भी पूज्य वें गुरु कैसे होंगें? तब उसे अरिहंतों के गुण कहें । उसे सुनकर उसने सम्यक्त्व प्राप्त किया और जिन-समृद्धि को देखकर उसे विशेष से प्राप्त किया । उसके बाद क्रम से जब उसने परिवार सहित श्रीवीर को देखा, तब उसके मन में द्वेष उत्पन्न हुआ । गौतम ने कहा कि-हे मुनि ! श्रीवीर को वंदन करो । वह भी गणधर से कहने लगा कि- जो यह आपके गुरु है, तो मुझे प्रव्रज्या से प्रयोजन नहीं हैं । आपके