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________________ १६ उपदेश-प्रासाद भाग १ प्रवर्त्तमान होते श्रुत-सामायिक का लाभ द्रव्य से होता है, किन्तु शेष लाभ नहीं होता । इसके अनंतर कोई भव्य परम-शुद्धि से ग्रन्थि - भेद रूप अपूर्वकरण कर मिथ्यात्व स्थिति के अंतर्मुहूर्त्त काल प्रमाण उसके प्रदेश के वेद्य-दलिक के अभाव रूप अंतरकरण को करता हैं । इनका यह क्रम हैं - जो ग्रन्थि है वहाँ तक आना वह प्रथम यथाप्रवृति करण है और ग्रन्थि-भेदन यह द्वितीय अपूर्व करण है । पुनः अनिवृत्तिकरण अर्थात् सम्यक्त्व की प्राप्ति जिसके द्वारा होनेवाली है ऐसे आसन्न सम्यक्त्ववाले जीव में अनिवृत्तिकरण होता है । यहाँ पर मिथ्यात्व की दो स्थितियाँ होती है । प्रथम अन्तर्मुहूर्त्त की स्थिति को भोगकर और द्वितीय उपशमित की गयी स्थिति में अन्तरकरण के प्रथम समय में ही सम्यक्त्व को प्राप्त करता हैं । क्योंकि प्राणी अंतर्मुहूर्त्त स्थितिवालें जिस सम्यग् दर्शन को प्राप्त करतें हैं, वह यह निसर्ग-हेतुवाला सम्यग्-श्रद्धान कहा जाता हैं । गुरु-उपदेश का आलंबन लेकर प्राणिओं को जो सम्यग् - श्रद्धान उत्पन्न होता है, वह यह दूसरा अधिगम सम्यग् - श्रद्धान कहा जाता है । यहाँ अधिगम-सम्यक्त्व के विषय में संप्रदाय से आया हुआ यह किसान का दृष्टान्त है बल पूर्वक भी समस्त सुखों की एक जन्म-भूमि ऐसा सम्यग् दर्शन श्राद्ध जन को दीया जाता है । क्या श्रीवीर - जिन ने उस उद्यम को श्रीगौतम के द्वारा भी किसान के ऊपर नहीं किया था ? एक दिवस जंगम कल्पवृक्ष के समान महावीर - जिन ने मार्ग में विहार करते हुए गौतम से कहा कि - हे वत्स ! जो आगे यह किसान खायी दे रहा है, तुम उसके प्रतिबोध के लिए शीघ्र ही वहाँ जाओं
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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