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उपदेश-प्रासाद
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भाग १
१८
तिसरा - व्याख्यान
अब यह सम्यग्-दर्शन दो हेतुओंवाला होता हैं, उसे कहतें हैं कि- तीर्थंकर के द्वारा कहे गये तत्त्वों में रुचि, वह सम्यक्त्व कहा जाता है और वह स्वभाव से अथवा गुरुओं के उपदेश से प्राप्त किया जाता है ।
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तीर्थंकरों के द्वारा कहें गये तत्त्व नव प्रकार से हैं और उनमें जो रुचि है, वह सम्यक्त्व - सम्यक् श्रद्धान रूप है । रुचि के बिना केवल (अकेले) ज्ञान से ही फल सिद्धि नहीं होती । तत्त्व के जानकारों के द्वारा भी रुचि के बिना हित रूपी लक्षणवाला फल प्राप्त नहीं किया जा सकता । श्रुत - ज्ञान धारक होते हुए भी अभव्य ऐसे अंगारमर्दक आदि का अथवा दूर- भव्य का निष्कारण ही जगद् के ऊपर एक वात्सल्यवालें ऐसे तीर्थंकरों के द्वारा कहे हुए तत्त्वों में रुचि रहितपने से विवक्षित फल नहीं सुना जाता है । उस सम्यक्त्व के उत्पादन में दो गतियाँ हैं- स्वभाव से और गुरु के उपदेश से । निसर्ग-स्वभाव से अर्थात् गुरु-उपदेश की निरपेक्षता से । अथवा गुरु के धर्मोपदेश की प्राप्ति से - अधिगम से । वह इस प्रकार से है अनादि संसार रूपी सागर के मध्य में रहा हुआ प्राणी भव्यत्व परिपाक के वश से पर्वत की नदी तथा पाषाण के घोलन तुल्य अनाभोग से निवर्तित हुए यथा- प्रवृत्ति करण से तथा अध्यवसायों के विशेष रूप से आयु कर्म को छोड़कर ज्ञानावरणीय आदि कर्मों को पल्योपम के असंख्येय भाग से न्यून एक सागरोपम कोटि-कोटि स्थितिवालें करता है । और इस बीच में जीव की कर्मजन्य घन राग-द्वेष परिणामवाली, कर्कश और दुर्भेद्य ग्रन्थि होती है । अभव्य भी इस ग्रन्थि तक अनंत बार आते है ! अभव्य प्राणी को भी इस करण से ग्रन्थि को प्राप्त कर अर्हत् आदि विभूति के दर्शन से
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