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उपदेश-प्रासाद - भाग १ आया । राजा ने पूछा कि- तुम कौन हो ? और कहाँ से आये हो ? उसने कहा कि- हे राजन् ! देवेन्द्र ने मुझे लेख को समर्पण करने के लिए भेजा हैं । लेख को खोलकर राजा ने पढा, जैसे कि
कल्याणकारी और श्री से युत ऐसे पाटण में राज-गुरु श्रीहेमचन्द्र को आनंद से प्रणाम कर स्वर्ग का इन्द्र विज्ञप्ति करता है कि- हे स्वामी ! चंद्र के चिह्न हिरण में, यम के चिह्न भैंस में, समुद्र के चिह्न जल-चर प्राणियों में तथा विष्णु के चिह्न मत्स्य, वराह
और कछुएँ के कुल में जीवों के अभय को करते हुए आपने चन्द्र, यम, समुद्र और विष्णु का सत्कार किया है।
पूर्व में स्वयं वीर जिनेश्वर भगवान् के भी धर्म के कहते और बुद्धिमंत अभय मंत्री के होने पर भी, जिसे करने के लिए श्रेणिक समर्थ नहीं हुआ था तथा जिसके वचन रूपी अमृत का आस्वाद न कर कुमारपाल राजा ने अक्लेशता से उस जीव-रक्षा को की थी ऐसे वें श्रेष्ठ श्रीहेमचन्द्र गुरु हैं।
इस प्रकार से धर्म के माहात्म्य से संतुष्ट हुए परमाहत कुमारपाल ने उसे द्विगुण वृत्ति-दान दिया ।
अब एक बार घेवर का भोजन करते हुए राजा ने पूर्व में कीये हुए मांस-आस्वादन का स्मरण किया। उसके भक्षण का निषेध कर सूरि को पूछा कि हमको घेवर का आहार योग्य है अथवा नहीं ? गुरु ने कहा कि- व्यापारी और ब्राह्मणों को योग्य है, किंतु अभक्ष्य का नियम करनेवालें क्षत्रिय को योग्य नहीं हैं, उससे मांसाहार का अनुस्मरण होता है । यह ऐसा ही है, इस प्रकार से कहकर पूर्व में भक्षण कीये हुए अभक्ष्य के प्रायश्चित्त में बत्तीस दाँतों की संख्या से एक लाईन में घेवर के वर्ण सदृश बत्तीस विहार कराये । इत्यादि अनेक लोकोत्तर चरित्र से अपहृत हृदयवाले और आजन्म मनुष्य स्तुति के